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'तो भगवन्, क्या गोशालक निरा मृषावादी, मिथ्यावादी है ?' _ 'सर्वज्ञ अर्हत अविरोध-वाक् होते हैं। वे किसी को भी एकान्त सत्यवादी या एकान्त मिथ्यावादी कैसे कह सकते हैं। कहीं कोई मृषावादी है, कि कहीं कोई सत्यवादी है। क्या मृषा को मृषा कहना ज़रूरी है ? जो है सो सामने आयेगा।'
'सुनें भन्ते, कल भिक्षाटन करते हुए श्रावस्ती के श्रेष्ठि-चत्वर से मैं गुजर रहा था। अचानक भीड़ से घिरे गोशालक ने मुझे पुकार कर कहा : 'सुनो गौतम, अपने गुरु महावीर से कह देना कि उनका प्रतिवादी चरम तीर्थकर, प्रति-तीर्थंकर गोशालक पैदा हो चुका है। उसकी धर्म-प्रज्ञप्ति ने महावीर के तीर्थकरत्व को धूल में मिला दिया है।'--मैंने कोई उत्तर न दिया, भन्ते । उत्तर तो स्वयम् शास्ता ही दे सकते हैं। लोक भी इसका उत्तर चाहता है। इसी से पूछना अनिवार्य प्रतीत हुआ, भगवन् ।
'बालक के उत्पातों को भी प्यार ही किया जा सकता है, गौतम। मैंने एक बार उसे अग्निलेश्या का खिलौना दे दिया था। वह उससे प्रमत्त होकर खेल रहा है। एक दिन खिलौना टूटना है, और खेल ख़त्म हो जाना है। उस आग का अन्तिम खेल वह महावीर के साथ ही खेल सकता है। वह खेल यहीं ख़त्म हो सकता है, अन्यत्र नहीं। उस उत्पाती से कहो, कि महावीर उसकी प्रतीक्षा में है।'
'क्या यही उत्तर उसे प्रेषित कर दूं, देवार्य ?'
'उससे कहो, कि महावीर स्वयम् उसका उत्तर है। सम्मुख आये और देख ले। उसके बिना वह चैन न पा सकेगा!'
श्रोतागण उत्सुक हो आये। मानो कि महाकाल के मंच पर किसी नये नाटक की यवनिका उठने वाली है। सारे काशी-कोशल में उदन्त फैल गया, इस बार श्रीभगवान् फिर किसी नये रहस्य का उद्घाटन करने वाले हैं।
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० ___कानोकान बात गोशालक तक पहुँच गयी। चट्टान की तरह तड़क कर वह बोला :
हूँ तो महावीर ने मुझे बुलाया है ! उसे मेरे पास आने में डर लगता है न । वह जानता है कि मैं उसका काल हूँ। और राजवंशी तीर्थंकर सिंहासन से नीचे कैसे उतर सकता है ? मैं सड़कचारी, सर्वहारा जनता का तीर्थंकर हूँ। मेरा मान इतना छोटा नहीं, कि उसके पास जाने से भंग हो जाये। मैं मैं उस महावीर का भी मानदण्ड हूँ, और मेरा यह मस्कर-दण्ड उसे भी माप कर काल के प्रवाह में फेंक देगा। सो मुझे तो उसका कोई भय नहीं। क्यों कि मैं उसकी मृत्यु हूँ।..
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