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नहीं था । कुछ विरल वैयक्तिक भक्त और अनुयायी ही उसके आसपास रह गये थे। उनके प्रश्रय में, उन्हीं के घर-आंगनों या आम्रवनों में वह सुरापान कर उन्मत्त प्रलाप करता रहता था ।
हालाहला का भी भ्रम भंग हो चुका था । पर वह गोशालक को अन्तःकरण से प्यार करती थी । उसमें उसने अपना नियोगी पुरुष देखा था । और वह किसी अज्ञात नियति से उसकी वरिता और समर्पिता हो कर रह गयी थी । उस पहले दिन गोशालक के करुण निरीह बालक मुख को देख कर वह पसीज गयी थी। उसके अनाथत्व के सम्मुख, अपने बावजूद, उसकी गोद विवश हो कर सामने फैल गयी थी । आज जब वह फिर सारी जागृत दुनिया द्वारा अवहेल दिया गया था, तब वह उसे कैसे ठेल देती । सो वह उसके साथ अटूट खड़ी रही, और बराबर उसे सहारा देती रही । लेकिन बुद्ध और महावीर के आलोक में वह भी जाग उठी थी, और मन ही मन उनके प्रति वह प्रणत थी ।
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श्रीभगवान् उन दिनों श्रावस्ती के परिसर में ही विहार कर रहे थे । यों वे पहले से ही गोशालक के उत्थान और पतन दोनों के दूर से साक्षी रहे थे । वे यह भी देख रहे थे, कि गोशालक का वह प्रथम प्रभाव अवश्य अवसान पा गया था, फिर भी भारतीय महानगरों के राजमार्गों और अन्त - रायणों में जब वह अपने को चरम तीर्थंकर घोषित करता हुआ, उन्मत्त प्रलाप करता घूमता था, तो हज़ारों मूढ़ जनता भेड़ों की तरह उसके पीछे चलती थी। उससे आतंकित होती थी । लोगों के मन में दुविधा भरा प्रश्न उठता था, चरम तीर्थंकर -- महावीर है, या गोशालक ? लेकिन गोशालक अपने को प्रति-तीर्थंकर भी कहता था । तो क्या वह महावीर से आगे का तीर्थंकर था ? ...
शास्ता के पट्ट गणधर भगवद्पाद गौतम को तब यह कर्त्तव्य प्रतीत हुआ, कि वे स्वयम् श्रीभगवान् के मुख से इसका निर्णय करवायें। और इस तरह प्रजा के चित्त-भ्रम का सदा के लिये निवारण हो जाये । सो उन्होंने एक दिन प्रभु की धर्म - पर्षदा में प्रश्न उठाया :
'भन्ते भगवान्, मक्खलि गोशालक सर्वत्र अपने को चरम तीर्थंकर, प्रतितीर्थंकर, जिनेन्द्र अर्हन्त कहता फिरता है ? क्या यह सत्य है ?'
भगवान् कुछ बोले नहीं । बड़ी देर तक चुप ही रहे । गौतम अन्तराल से प्रश्न दोहराते रहे । और प्रभु निश्चल दृष्टि से समवसरण के सारे मण्डलों को, और उनके पार तक ताकते रहे। अचानक सुनायी पड़ा :
'यह प्रश्न उठता ही नहीं, गौतम ! सत्य और मिथ्या का निर्णय स्वयम् समय ही कर सकता है ! '
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