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ठीक तभी तीर्थंकर महावीर, उस धुन्ध को चीरते हुए, विपुलाचल के शिखर पर एक विवस्वान् महासूर्य की तरह उदय हुए। उनके कैवल्य के प्रभा-मण्डल से, आपोआप सारे समकालीन विश्व के दिगन्त आलोकित हो उठे। चारों ओर उबुद्ध चेतना के नये क्षितिज झलमलाते दिखायी पड़े। प्राणि मात्र अपने ही भीतर से स्वतः जाग कर, किसी गहरे समाधान की स्वयम्भू शांति महसूस करने लगे। वायु, जल, वनस्पति जैसे स्थावर एकेन्द्रिय जीव,
और कीट-पतंग तक में कोई नया उल्लास और अकारण आनन्द उमग आया। कण-कण जाग उठा। एक नयी नैतिक मर्यादा उदीयमान दिखायी पड़ी। प्रभु की कैवल्य-प्रभा से सारा लोक, किसी नव्य ऊषा की आभा में नवजन्म लेता-सा प्रतीत हुआ।
साथ ही प्रभु के देवोपनीत समवसरण का शाश्वत ऐश्वर्य, और उनके चरणों में झुके इन्द्रों और माहेन्द्रों के स्वर्ग, उनके चरम-तीर्थंकर होने का अचक प्रमाण सिद्ध हुए। लोक-चेतना में अनायास ही यह प्रत्यय ध्रुव हो गया, कि अर्हत् महावीर ही एकमेव शास्ता, और अवसर्पिणी के युगन्धर शलाका-पुरुष हैं। सारे पूर्वीय भरत-खण्ड में उनके समवसरणों ने एक विभ्राट ज्योति-शिखा प्रज्ज्वलित कर दी थी। वे मानो हिमवान् के शिखर पर खड़े हो कर धारासार बोल रहे थे, और उनकी दिव्य वाणी में डूब कर सारा समकालीन विश्व किसी नयी दिशा में प्रवाहित हो गया था।
महावीर के उदय के कुछ ही समय बाद सिद्धार्थ गौतम भी सम्यक् सम्बुद्ध हो कर, हिरण्याभ पूषन् की तरह आर्यावर्त के परिदृश्य पर प्रकट हुए। उनके निरन्तर परिव्राजन, प्रवचन, और प्रतिबोध ने भी प्रजाओं को एक स्वतः स्फूर्त बोधि से आश्वस्त कर दिया। उनकी सम्यक् सम्बोधि ने मानवों को, विपश्यना ध्यान द्वारा पूर्ण संचेतन होने की अमोघ योग-विद्या सिखा कर, अपने आप में ही सारे प्रश्नों का समाधान पा लेने की कुंजी प्रदान कर दी। उनके प्रतीत्यसमुत्पाद के महामंत्र ने जन को स्वतंत्र और स्वाधीन जीवन जीने की कला सिखा दी। उनके अष्टांग धर्म-मार्ग और पंचशील ने व्यक्ति और समाज को स्वस्थ और संगठित जीवन जीने की एक आचार-संहिता सौंप दी। उनके महाकारुणिक व्यक्तित्व में, अन्धकार में भटकती अनाथ प्रजा की चेतना को, एक परम पिता की शरण प्राप्त हो गयी।
आर्यावर्त में वह चिर प्रतीक्षित पुनर्जागरण और नवोत्थान घटित हो गया, जो कि सृष्टि और इतिहास की अनिवार्य घटना थी। नव जागृति के इस आलोक में गोशालक द्वारा उत्पन्न निष्क्रिय भोग-मूर्छा की कुहा फट गयी, कोहरा छंट गया। उसकी धर्म-सभाओं में अब केवल अन्धी भेड़ों का रेवड़ जमा होता था। कोई सच्चा जिज्ञासु या मुमुक्षु वहाँ अब फटकता तक
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