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'अभी और यहाँ इनका प्रयोग करो, और अभी और यहाँ इस नियति के अनिरि चक्र में ही मुक्ति का अनुभव करो ।'
और अपनी धर्म-पर्षदा के मंच पर ही परम नियति-नटेश्वर मंखलि गोशालक, चरम नियति-नटी मृत्तिका हालाहला के साथ चरम पान, चरम गान, चरम नृत्य, चरम पुष्पांजलि वर्षा, चरम कादम्बिनी-स्नान, चरम गंधहस्ति-चर्या, चरम महा शिलाकंटक संग्राम और चरम रथ-मुशल संग्राम की लीला करते हुए, सारे भान भूल कर उन्मत्त, उन्मुक्त, उद्दाम हो जाते। और उस महारास और महाताण्डव में, सारे ही आजीवक श्रमण-श्रमणियाँ भी अष्टांग चरम-चर्या करते हुए एकाकार हो जाते।
पूर्वीय आर्यावर्त के इस छोर से उस छोर तक के सारे राजनगरों और जनपदों में, इस निर्बन्ध अष्टांग चर्या से भारी उथल-पुथल मच गयी। मूर्ख अज्ञानी प्रजाओं को गोशालक का दार्शनिक वाग्जाल और प्रलाप तो ख़ाक समझ में न आया। पर जितना ही वह कम समझ में आया, उतना ही उसका आतंक जन-हृदय पर अधिक छाया। तिस पर अष्टांग चर्या में तो जनों को अपने सारे क्लेश निग्रंथ हो कर बहते दिखायी पड़े। आर्यावर्त की उच्छिन्न चेतना में, मक्खलि गोशालक की यह उलंग वामाचारी धर्म-प्रज्ञप्ति और भोगचर्या अनायास गहरे-गहरे उतरती चली गयी। देखते-देखते उसके मंख-श्रमणों और मंख श्रावकों की संख्या दिन-दूनी और रात-चौगुनी होती हुई बढ़ने लगी। ____गंगा-यमुना के पानियों पर नाचती नियतिवाद की यह धर्म-प्रज्ञप्ति, अचीरक्ती, हिरण्यवती, गण्डकी और शोण नदियों के प्रवाहों पर तडिल्लतासी खेलती हुई, पूर्वीय समुद्र का वक्ष चीरती हुई, सार्थवाहों के जलपोतों पर चढ़ कर महाचीन और सुवर्णद्वीप तक पर गूंजती सुनाई पड़ी। - ज्ञान के दुर्गम्य आलोक-शिखर ओझल हो गये। उन पर घिरती अन्धकार की दारुण कुहा में, अज्ञान और उलंग भोगाचार की जय-दुन्दुभि बजने लगी। ० ००
० ___यों पाँच वर्ष कब बीत गये, पता ही न चला। गोशालक ने प्रजाओं को जिस अनुपाय सहज मुक्ति का सन्देश दिया था, वह मुक्ति नहीं, मूर्छा सिद्ध हुई। सतह पर उससे एक आश्वासन ज़रूर मिला, लेकिन लोक की भटकी चेतना को वह कोई ठहराव या मुक़ाम न दे सकी। कोई ऐसी धुरी भीतर स्थापित न हो सकी, जिस पर जीवन-जगत् और उसके व्यवहार को टिकाया जा सके, उसे कोई अविचल आधार मिल सके। किसी अज्ञात भय से ही सही, प्रजा के हृदय में जो नैतिक मर्यादा और विवेक स्वतः जागृत था, वह भी लुप्त हो गया। एक उन्माद की धुन्ध में सारा लोक ऊभ-चूभ हो रहा था।
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