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'नियति द्वारा निर्धारित अवस्थाओं और पर्यायों में से संक्रमण करते हुए, तमाम जीव छह हज़ार जातियों में सुख-दुख का अनुभव करते हैं। चौदहसौ हजार प्रमुख योनियाँ हैं। दूसरी आठ सौ, दूसरी छह सौ। पाँच सौ कर्म हैं। दूसरे पाँच कर्म, तीसरे तीन कर्म, फिर एक कर्म और आधा कर्म । बाँसठ परिषद्, बाँसठ अन्तर्कल्प, छह अभिजातियाँ, आठ पुरुष-भूमियाँ, उनचाससौ आजीवक, उनचास-सौ परिव्राजक, उनचास-सौ नागवास, बीस-सौ इन्द्रियाँ, तीस-सौ नरक। छत्तीस-सौ रजो धातु, सात संज्ञी गर्भ, सात असंज्ञी गर्भ, सात निग्रंथ गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात शर, सात गाँठ, सात-सौ पसुर, सात प्रपात, सात-सौ प्रपात, सात स्वप्न, सात-सौ स्वप्न ।
"बाल हो कि पण्डित हो, ज्ञानी हो कि अज्ञानी हो, चौदह सौ हजार योनियों और चौरासी हजार महा-कल्पों में उन्हें आवागमन करना ही पड़ेगा। यह अनिवार्य है। कोई पुरुषकार इसका प्रतिकार या निवारण कर नहीं सकता। इस चक्र के पूरा होने से पूर्व, आवागमन रोकने की कल्पना व्यर्थ है। यह जन्म-चक्र जिस दिन पूरा हो जायेगा, उस दिन आवागमन स्वतः रुक जायेगा। अपने आप विशुद्धता आ जायेगी। निर्मलता स्वयम् लब्ध हो जायेगी। तब घटित होगी अपने आप मुक्ति। इससे पूर्व छटपटाना व्यर्थ है। किसी घटना का कोई हेतु और कारण नहीं। अत: उसके कारण' का उच्छेद करने के लिये जप-तप आदि की बात करना मुर्खता है। प्रत्येक घटना नियति द्वारा घटायी जाती है। किसी हेतु या कारण द्वारा नहीं।
___ 'इसी से कहता हूँ, भव्यो. इसी क्षण से सारे संकल्प, प्रयत्न, पुरुषार्थ, परिश्रम का जुआ अपने ऊपर से उतार फेंको। निर्विकल्प निद्व हो कर, अस्तित्व और जीवन जैसा सामने आये, उसे स्वीकारो और भोगो। हर सुख का अन्त दुख है, हर दुख का अन्त सुख है। सुख-दुख का विकल्प ही त्याग दो। सारे बन्धन, त्याग, तप-संयम, प्रयत्न छोड़ दो। बस फिसलते जाओ, बहते जाओ, और क्षण-क्षण सहज मुक्त होते जाओ।
'इस सहज सुख और मुक्ति में जीने के लिये नंग-विहंग, मस्त हो जाओ। चरम सुरापान करो, चरम गान करो, चरम नृत्य करो, चरम पुष्पोत्सव करो, फूल बरसाते पुष्करावर्त महामेघ की धाराओं में चरम अभिषेक-स्नान करो, चरम गन्ध-हस्ति की तरह उन्मत्त विहार करो। चरम महाशिला-कण्टक संग्राम खेलो, चरम रथ-मुशलों की मार के बीच भी चरम सुरापान कर चरम नृत्य-गान करो। यही अष्टांग चर्या मेरे अति कैवल्य में ध्वनित हुई है। और इसी का साक्षात्कार करके मैं चरम तीर्थंकर हो गया हूँ। यही आठ चरम सत्य है, चरम दर्शन-ज्ञान-चारित्र्य हैं। यही चरम मुक्ति का परम और एकमेव मार्ग है।
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