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________________ १४८ चित पड़ा था। लक्ष्य का क्षितिज लोक-चक्षु से ओझल हो गया था। जीवन और धर्म के बीच एक अलंघ्य खायी मुंह बाये पड़ी थी। ____ठीक इसी समय मक्खलि गोशालक भारत के परिदृश्य पर प्रकट हुआ। उसने परब्रह्म, परमात्मा, परलोक, पाप-पुण्य की सारी परोक्षावादी अवधारणाओं का भंजन करके, ठीक अभी और यहाँ जीने के लिये एक इहलौकिक धर्म-प्रज्ञप्ति गढ़ डाली। वह प्रत्यक्ष अस्तित्ववादी था। अस्तित्व ठीक इस क्षण जैसा सामने आ रहा है, उसी को देखो, जानो और उसे निर्बन्धन हो कर जियो। धर्म धारणा नहीं है, वह ठीक अभी हाल का जीवन है। कहीं कोई स्रष्टा ईश्वर नहीं, कोई नियन्ता नहीं, कोई आत्मा नहीं। बस, एक अन्ध नियति का चक्र ही सृष्टि का संचालक है। जीवन के संघर्ष और अनुभव से अर्जित इस नियतिवाद में ही गोशालक को स्वच्छन्द भोगवाद का आधार प्राप्त हो गया। जब 'है' और 'होना चाहिये' के बीच की दूरी ही ख़त्म हो गयी, तो पाखण्ड अपने आप ही समाप्त हो गया। नग्न अस्तित्व, नग्न जीवन, उसका उलंग भोग। अन्य और अन्यत्र, और कोई धर्म या सत्ता है ही नहीं। __ आर्यावर्त की नब्बे प्रतिशत अपढ़-मूढ़ जनता को इस नक़द धर्म में, जीने का एक अतयं सहारा प्राप्त हो गया। प्रत्यक्ष और परोक्ष, सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म का सारा चिरकालीन संघर्ष ही, इस सद्य प्रस्तुत और नग्न अस्तित्ववाद में आपोआप विसर्जित हो गया। सारे पाखण्डों और अन्धकारों का घटस्फोट हो गया। सब कुछ खुल कर सामने आ गया। इस तरह गोशालक ने प्रजा के हृदय के अँधियारे रिक्त को भर दिया। उसने एक गहरे सन्तोष और राहत की सांस ली। ___इस परिदृश्य में व्युत्पन्न मति गोशालक के सामने अपने निर्बाध उत्थान की सीढ़ियाँ अनायास खुलती चली गयीं। संक्रान्ति में भटके भारतीय मन के इस शून्य और अन्धकार में उसका यथार्थवादी अस्तित्ववाद और भोगवाद प्रत्ययकारी सिद्ध हुआ। एक आकस्मिक उल्कापात की तरह उसकी धर्म-प्रज्ञप्ति, जन-हृदय पर टूट कर जंगली आग की तरह फैल चली। ० कौशाम्बी और काशी-कोशल से लगा कर, अंग-बंग तक के दिगन्तों पर मस्कर-दण्ड हिला-हिला कर एक औघड़ क्षपणक बोलता सुनायी पड़ा। आर्यावर्त के तमाम प्रमुख राजनगरों के चैत्यों, चौकों और चत्वारों पर उसका धर्म-पीठ बिछ गया। सारे ही महानगर उसकी धर्म-देशना के केन्द्र हो गये। उसने ठीक अपने ही जीवन की त्रासदी को लाखों प्रजाओं के सामने नग्न कर के, उनकी अचूक सहानुभूति प्राप्त कर ली। उसकी त्रासदी में सब ने अपनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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