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________________ महावीर के अग्नि-पुत्र : आर्य मक्खलि गोशालक .. यह वह समय था, जब समस्त आर्यावर्त की चेतना एक संक्रान्तिकाल से गुजर रही थी। धर्म के धुरन्धर ब्राह्मण का पतन हो चुका था। वर्णाश्रम धर्म की चूलें उखड़ गयी थीं। आनन्दवादी वेद, और ज्ञानवादी उपनिषद् की प्रभा मन्द पड़ गयी थी। क्यों कि उनका प्रवक्ता ब्राह्मण, आनन्द और ज्ञान की ओट में स्वच्छन्दाचारी हो गया था। वह अपने ब्रह्मतेज से स्खलित हो कर, राजाओं और श्रेष्ठियों का क्रीत दास पुरोहित हो गया था। आरण्यक ऋषियों के आश्रम परित्यक्त और सूने हो पड़े थे। उनके आनन्द और ज्ञान की यज्ञवेदियों पर, जिह्वालोलुप और कामात पुरोहितों के कर्म-काण्ड की दूकानें खुल गयी थीं। उनके हवन-कुण्डों में अब पवित्र अग्नि प्रकट नहीं होते थे। वे तृष्णा और भोग की संहारक आग से दहक रहे थे। उनसे अब सुगन्धित पावनता का हुताशन नहीं उठता था। प्राणियों की चीत्कारें और चरबी का चिरायन्ध धुआँ उठता था। वेदों के देव-मण्डल और उपनिषदों के ऋषिमण्डल लोक-मानस में से विलुप्त हो गये थे। लोक-मंगलकारी, परित्राता धर्म का सिंहासन ध्वस्त हो चुका था। जनहृदय में एक गहरे अवसाद और अराजकता का अन्धकार छाया था। जनमन की श्रद्धा का आधार उच्छिन्न हो गया था। आर्यावर्त के मनुष्य के पास अब पैर टिकाने को कोई धरती नहीं रह गयी थी। उसकी चेतना एक निराधार शून्य के मरण-भंवरों में गोते खा रही थी। महावीर और बुद्ध के त्याग और तप के प्रताप से जनता चकित और अभिभूत अवश्य थी। लेकिन उनका प्रभा-मण्डल अभी सुदूर परिप्रेक्ष्य में अन्तरित था। वे कैवल्य और बोधिसत्व की चरम समाधि की अनी पर खड़े थे। लेकिन आर्यावर्त के परिदृश्य पर वे अभी प्रकट नहीं हुए थे। धर्म-पीठ रिक्त पड़ा था। पार्श्वनाथ का चातुर्याम-संवर धर्म अब शिथिलाचारी श्रमणों का छूछा बाह्याचार मात्र रह गया था। ब्राह्मण का पाखण्ड उघड़ कर चौराहों पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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