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________________ १४६ वीणा बजाते, नृत्य करते, चित्रांकन करते हए, खेल-खेल में ही नियतिवाद का दर्शन आकार धारण करता चला गया। .. अनायास ही कुम्भारिन झूम कर चाका चला देती है। अनायास ही उसके कंकण-नूपुर रणकार उठते हैं। उसकी मृणाल बाहु से अनायास चालित दण्ड । उभरते कुम्भ पर उसकी सुकुमार लम्बी उँगलियों की फिसलन । उसकी लचकती कलाई की गुलछड़ी पर रिलमिलाती मणि-चूड़ियों की ढलकन, उसकी झूमती-झामती, कटीली साँवली, लचीली देह-यष्टि पर लावण्य की लहरों का आवर्तन । और लचक-मचक में रह-रहकर शिथिल हो जाते उसके अन्तसिक की फिसलन। उसके भीतर की कदली-घाटियों में असह्य आरति की फिसलन। सतत पूर्णिमान चक्र, उस पर माटी का घूमता लौंदा, उस पर फिसलती लचीली उँगलियाँ, भंवराली चूड़ियाँ उभारता कुम्भ, लचकती बाँह से आपोआप चलता चाका और दण्ड । और इस चक्रावर्तन और फिसलन में से नियतिवाद के दर्शन का तार भी रात-दिन अपने-आप खिंचता चला जा रहा था। 'आलोड़न, ढलकन, लुढ़कन। ढलकते चलो, लुढ़कते चलो। फिसलन, फिसलन, फिसलन। वहन, वहन, वहन। फिसलते चलो, फिसलते चलो, बहते चलो, बहते चलो। सब आपोआप होता है। न कोई पुण्य, न कोई पाप होता है । जो होना होता है, वही होता है। यह सब कुछ स्वतः होते जाना ही, एक मात्र सत्य है । नियति ही सृष्टि का एक मात्र नियम, स्वधर्म और सारांश है। . अन्तहीन काव्य-रचना। दार्शनिक सूत्रों का जटाजूट आल-जाल। कितनी ही घटनाओं, द्रष्टान्तों और जीवनानुभवों के निरन्तर जारी चित्रांकन । ताड़ पत्रों और चित्रपटों के ढेर लगते चले गये। नियतिवाद का दर्शन मकड़ी के जाले की तरह आपोआप अपने को बुनता चला गया। मानो परब्रह्म के अन्तर-काम में से, माया का विस्तार उनके अनचाहे ही होता गया। वैशाख की, गोपन आम्ररस से महकती चाँदनी रातों में, आम्रकुंज के ग्रीष्म-कक्ष में, सृष्टि की प्रियाम्बा हालाहला, अपनी गहन मृत्तिका-कोख में एक नये भगवान् और नये धर्म का गर्भाधान कर रही थी। सारा ब्रह्माण्ड मानो उसके वक्षोज पर, एक नवीन कुम्भ के रूप में आपोआप अवतीर्ण हो रहा था। __..और एक दिन अचानक काशी-कोशल, कौशाम्बी, कपिलवस्तु, वैशाली, चम्पा और राजगृही के राजमहलों में, श्रेष्ठि-प्रासादों, अन्तरायणों, चत्वरों, चौकों में एक साथ यह उदन्त सुनाई पड़ा, कि जिनेश्वरों के जिनेश्वर, चरम तीर्थंकर, प्रति-तीर्थंकर, परम भागवत भगवान् मक्खलि-गोशालक अति-कैवल्य को उपलब्ध हो गये हैं। और अब वे शीघ्र ही दिग्विजयी विहार करते हुए, अपने अपूर्व धर्मचक्र का प्रवर्तन करेंगे। अराजकता और अन्धकार में गुमराह आर्यावर्त के लोक-जनों को इस ख़बर से एक अजीब सान्त्वना मिली। वे उत्सुकता से इस अभिनव तीर्थंकर की प्रतीक्षा करने लगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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