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नाचती रहती थी। अपने प्रभु के आदेश पर उसने अपने आम्र-कानन के ग्रीष्म-कक्ष को, यथा आज्ञा सज्ज करा दिया था। चित्रांकन, काव्य-रचना, दर्शन-रचना, सुरापान, वाद्य-गान और नृत्य के सारे उपादान वहाँ जुटा दिये गये थे। कक्ष के ठीक मध्य में मस्कराचार्य का विशद पट्टासन बिछाया गया। वही उनका सुखद रेशमीन शयन भी था। उसी के आसपास उपरोक्त सारे उपादान चौकियों पर सज्जित थे। कक्ष की छाजन और द्वार-खिड़कियों को उषीर (खस) के आस्तरण और यवनिकाओं से छा दिया गया था, जिनमें धारा-यंत्र से सदा जल-फुहियाँ झरती रहती थीं। केवल एक सामने का गवाक्ष खुला रखा गया था, जिस पर उषीर की टट्टी सायबान की तरह उचकी रहती थी। इस गवाक्ष से दूर तक सारा आम्रकानन दिखाई पड़ता था।
"ठीक इस गवाक्ष के सामने ही इन दिनों नाति दूर, नाति पास, हालाहला का कुलाल-चक्र एक नव-निर्मित विस्तृत मृत्तिका-वेदी पर स्थापित कर दिया गया था। और उससे काफी हट कर चारों ओर मण्डलाकार अनेक कुम्हार-कम्मकरों के चक्र चलते रहते थे।
हालाहला सबेरे से ही नव-नवरंगी अंशुक और कुसुमाभरण धारण कर, वेणी पर फूल-गजरा बाँध, केन्द्रीय चक्र पर भाण्ड निर्माण करती दिखायी पड़ती। माटी भी काली, कुम्हारिन भी काली, उसकी काली-भंवराली आँखों में छलकती वारुणी भी काली। सघन अमराइयाँ भी काली, और उनमें रहरह कर टहुकती-टोकती कोयल भी काली। मृत्तिका का अँधियारा गर्भदेश । तमस और रजस् का मौलिक मोहन-राज्य । हालाहला की साँवली लुनाई में मॅजरियाँ महकतीं, ॲबियाएँ फूटतीं। आम्रफलों में रस संचार होता। समूची प्रकृति-सृष्टि, और उसकी विधात्री स्वयम् है यह कुम्भारिका। उसके चाके में घूमता है सारा ब्रह्माण्ड। वह समुद्र में से उत्थायमान उर्वशी की तरह, अनेक बंकिम भंगों में लरज-लरज़ कर, झूम-झाम कर अपने दण्ड से चाका चलाती। उसके कंकणों की रिणन् और नूपुरों की रुन्झुन् में कविता, संगीत, नृत्य, क्षण-क्षण नव-नूतन रूपों में मूर्तिमान होते। अपने वक्षोजों में ही मानो सहजात वीणा धारण किये, वह साक्षात् सरस्वती-सी वहाँ नाना रूप-भंगिमाओं में प्राकट्यमान दिखायी पड़ती। मानो कि सारा भूमण्डल अपनी सम्पूर्ण लीलाओं के साथ वहाँ उपस्थित होता।
और अपने ग्रीष्मावास की सुखद शैया में आसीन मस्कराचार्य भगवान गोशालक, सम्मुख खुले गवाक्ष से इस सृष्टि-लीला को सतत निहारते हुए, नियतिवाद के दर्शन की रचना करने लगे। ऊपर अमराई में कोयल कूकती, आचार्य रह-रह कर पास ही पड़े कापिशेया-मदिरा के कुम्भ से सुरापान करते । बीच-बीच में तान कर वीणा झंकार देते । और यों काव्य-गान करते,
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