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________________ १४४ फिर नियति के भेजे छह दिशाचर भी ठीक समय पर आये। जिनमार्ग त्याग कर वे उसके शिष्य हो गये। मानो जिनेन्द्रों की सारी परम्परा पराजित हो गयी । और वह स्वयम् जिनेन्द्रों का जिनेन्द्र , परम जिनेश्वर हो गया ! "तब अचानक सम्हल कर, वह सयाना और संयत हो गया। उसके भीतर निश्चय जागा, कि अब लोक के सामने पूरी तरह प्रकट होने से पहले उसे अपने नियतिवाद को एक सशक्त और सर्वांगीण दर्शन के रूप में निरूपित, विकसित और प्रणालीबद्ध करना होगा। प्रतिभा की चिनगारी तो वह ले कर ही जन्मा था। और फिर उसकी चेतना में एक संशय-कीट था, एक प्रश्नाकुलता थी। इसी प्रश्नाकुलता में से तो महान् दार्शनिक सदा प्रकट होते आये हैं। फिर गोशाल के दैन्य, दासत्व, अनाथत्व और सतत अपमान ने भी, उसके चित्त में कुतरते संशयकीट को पोषित किया था। महावीर के प्यार को पहचान कर भी, वह उसके वशीभूत न हो सका। क्योंकि उसकी समस्त जाति की दरिद्रता और हीनता-ग्रंथि, बार-बार राजवंशी श्रमण महामहावीर से द्रोह कर उठती थी। उन्हें शंका की दृष्टि से देखती थी। इसी से स्वभावतः महावीर के तप-तेज और ज्ञान से बार-बार मुग्ध-मूढ़ हो कर भी; वह कभी उन्हें पूरी तरह स्वीकार न सका । गहरे में कहीं सदा वह उनके साथ एक तीव्र और कटु ईर्ष्या, तथा प्रतिस्पर्धा का दंश अनुभव करता रहा। हर कदम पर प्रश्न उठाता, परीक्षा करता, वह उनका अनुगमन करता रहा। उसके उन तीखे संशयों और प्रश्नों की धार पर ही नियतिवाद का तिल-क्षुप फूलने फलने लगा। और अब उसे अपने नियति-चक्र की धुरी भी उपलब्ध हो गई, इस हालाहला में। वह श्रीमन्त थी, और अपने देश-काल की एक अप्रतिम रूपसी थी। काशी-कोशल और कोशाम्बी तक के सारे श्रेष्ठी, सामन्त, राजपुत्र, और वत्सराज उदयन तथा कोशलेन्द्र प्रसेनजित् तक भी उस पर अपने दाँव आजमा चुके थे। रानीत्व और राजसिंहासन उसके चरणों पर निछावर हुए। पर उसकी नज़रें तक न उठीं, उन्हें देखने को। वह एक अपराजिता कुमारिका थी। एक अजेय रमणी थी। उसकी मानिनी चितवन को इन्द्र का वीर्य, वज्र और तेज भी नहीं उठवा सकते थे। उसका यौवन और सौन्दर्य उम्र के साथ क्षीण न हो कर, अधिक दीप्त और सम्मोहक होता जा रहा था। ऐसी एक दुर्दामिनी नारी, दीन-दरिद्र, द्वार-द्वार के अपमानित, अकिंचन गोशालक को अकारण ही, क्षण मात्र में समर्पित हो गई। नियति का इससे बड़ा प्रमाण क्या । और नियति-नटी यदि हालाहला नहीं, तो और कौन हो सकती थी। ऐसी हालाहला को अटूट साथ खड़ी पा कर, गोशालक के पौरुष और प्रतिभा में पूनम के समुद्र-ज्वार उमड़ आये। उसके संकेत पर हालाहला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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