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इस प्रकार छह दिशाचर श्रमण- गणधरों द्वारा नित्य घोषित गोशाल की यह धर्म-प्रज्ञप्ति, मूढ़, अपढ़ सर्वसाधारण जन और बुद्धिवादी तार्किकों के हृदय में समान रूप से गहरी पैंठती चली गयी। वे ब्राह्मणों के यज्ञ-याग और कर्म-काण्ड के जंजाल, तथा बाह्याचारी श्रमणों द्वारा उपदिष्ट कठोर तप-संयम की धर्म - प्रज्ञप्ति से ऊब चुके थे। ऐसे में गोशालक का सहज स्वच्छन्दी मुक्ति-मार्ग उनके मनों को बहुत भा गया । दिशाचर श्रमण श्रावस्ती से बाहर जा कर, काशी- कोशल के सारे ही जनपदों में गोशालक की धर्मप्रज्ञप्ति को डंके की चोट घोषित करने लगे । सर्वत्र ही प्रजा इस नव्य और आधुनिक जिनेश्वर के दर्शन और श्रवण को व्यग्र हो उठी ।
....लेकिन गोशालक इस बीच एकान्त वास में रह कर, अपनी इस नयी धर्म-देशना को एक सांगोपांग दर्शन का रूप देने में संलग्न हो गया । महावीर के संग छह वर्ष विहार, और उससे पूर्व के अपने सारे अस्तित्व - संघर्ष और उससे निचुड़े अनुभव से उसने नियतिवाद का प्रत्यय तो पा ही लिया था । अब वह अनजाने ही उसकी धुरी की खोज में था । ठीक मुहूर्त आने पर उस दिन प्रातः श्रावस्ती में वह धुरी स्वयम् ही सामने आकर खड़ी हो गयी । अनन्य रूपसी, अपरूप सुन्दरी हालाहला । अपने कुलाल चक्र पर दण्ड टिकाये, माटी के लौंदे से सुगढ़ भाण्ड उभारती वह कुम्भकारिन । गोशालक ने साक्षात् किया, कि वही तो नियति-चक्र की धुरी पर बैठी है । उसकी एकमेव नियतिनारी, जो मानो उसी के लिये जन्मी थी । गोशालक की अनिर्वार आन्तरिक पुकार के उत्तर में, वह सम्मोहित -सी सामने आ खड़ी हुई । प्रथम दृष्टिमिलन में ही उनकी चेतनाएँ अकस्मात् सम्वादी हो गईं । काल के रंगमंच की एक नेपथ्यशाला से आई मृत्तिका हालाहला, और दूसरी नेपथ्यशाला से आया गोशालक । सम्मुख होते ही परस्पर को पहचान कर समर्पित हो गये । गोशालक की जन्मान्तरों की पुकार और प्यास ने, उत्कटता के चरम पर पहुँच कर अपना उत्तर प्राप्त कर लिया । उसकी नियति-नटी एक नारी के रूप में साकार हो कर सामने आ खड़ी हुई । अस्तित्व और नियति की एक महान त्रासदी का बड़ा सुन्दर और मधुर मंगलाचरण हुआ ।
गोशालक को कुम्हार कन्या के कुलाल- दण्ड में ही अपने मस्कर दण्ड का साक्षात्कार हुआ। उसके कुलाल-चक्र में ही नियतिचक्र प्रत्यक्ष घूमता दिखायी पड़ा। सारे उपादान चमत्कारिक संगति से एक साथ सामने आ खड़े हुए । नारी सृष्टि की आद्या शक्ति है । ठीक मुहूर्त में गोशालक की नियोगिनी नारी सम्मुख आ खड़ी हुई । उसका बल पा कर वह आह्लादित और उन्मेषित हो उठा । आनन-फानन में उसने कठोर छठ तप करके अग्नि - लेश्या सिद्ध कर ली। उसकी प्रथम देशना ने ही श्रावस्ती के जन का हृदय जीत लिया ।
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