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________________ १४२ एक दिन वे गोशालक से मिलने आये। सूचना पाने से पूर्व ही गोशालक को उनके भीतर-बाहर का पूरा आभास हो गया। वे तुरन्त बुला लिये गये। सामने आते ही उन्होंने मंख गुरु को साष्टांग दण्डवत किया। और पंक्तिबद्ध उपविष्ट हुए। गोशालक ने अविलम्ब स्वामित्व की भंगिमा में मस्कर-दण्ड हिला कर कहा : _ 'जान गया, जान गया। तुम सर्वज्ञ जिनेन्द्र गोशाल की हथेली पर हो। हस्त-रेखावत् प्रत्यक्ष। मुहूर्त आ गया है। तुम सब अपनी-अपनी विद्याओं का बखान करो, और उनके प्रयोग कर दिखाओ। और मैं तुम्हारे प्रताप को क्षणार्ध में हजार गुना कर दूंगा । तत्काल आरम्भ करो, मुहूर्त नहीं टलना होगा।' __उसकी अमोघ अग्नि-विद्या के तेज के आगे, एक-एक कर छहों श्रमण धागे के दड़े-से खुलते आये। स्वयम् ही विवश व्यग्र होकर, प्रत्येक ने अपनी विद्या का रहस्य गोशालक के आगे प्रकट कर दिया। गोशालक की एकाग्र चेतना में, सुनते-सुनते ही वे सारी विद्याएँ सिद्ध होती आईं। उसे अन्तिम निश्चय हो गया, कि अब वह जो चाहे सो कर सकता है। गोशालक के अविकल्प आदेश पर वे छहों दिशाचर श्रमण, तुरन्त ही मंख-दीक्षा में दीक्षित हो गये। तत्काल उन्हें मस्कर दण्ड, झोली, अन्तरवासक, कुण्डिका, उपानह आदि से मण्डित कर, मंख श्रमण बना दिया गया। हालाहला तो पहले ही प्रथम शिष्या होकर, भगवान् गोशालक की युगलित भगवती हो गयी थी। ये छह श्रमण उसके प्रथम पट्ट-शिष्य और गणघर हो गये। गोश लक ने उन्हें 'नत्थि पुरिस्कारे' का नियतिवादी मंत्र प्रदान किया। कुछ ही शब्दों में एक संपूर्ण धर्म-प्रज्ञप्ति प्रदान की। और अगले ही दिन से, प्रति दिन वे श्रावस्ती के राजपथों, त्रिकों, चौहट्टों पर मस्कर-दण्ड हिला-हिला कर, जिनराज-राजेश्वर भगवान् गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति उद्घोषित करते सुनाई पड़ने लगे : ___ • गोस्सालस्स मंखलि पुत्तस्सा धम्म पण्णत्ती, नत्थि उद्वाणे इवा, कम्मं इवा, वले इवा, वीरिष्ट इवा, पुरिसक्कार परक्कमे इवा । ...अरे लोकजनो सुनो, अभिनव जिनेश्वर मंखलि गोशालक की धर्म-प्रज्ञप्ति सुनो : उत्थान नहीं है, कर्म नहीं है, बल नहीं है, वौर्य नहीं है, पुरुषार्थ नहीं है, पराक्रम नहीं है। जो कुछ है, वह नियति है। सारे भाव और अस्तित्व पहले से ही नियत हैं। पूर्व नियत क्रम-बद्ध पर्यायों से गुजरने को प्रत्येक जीव अभिशप्त है। उन सब से पार हो कर, जीव आपोआप मुक्त हो जाता है। इसी से खाओपियो, मुक्त भोगो, मुक्त जियो। कोई पुरुषकार नियति का निवारक नहीं। अपनी वृत्तियों को खुल कर व्यक्त करो उनका निर्बाध रेचन होने दो। और एक दिन स्वतः ही निवृत्त, शुद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाओगे।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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