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पाया? उनको रोग झेलते, वृद्ध होते देख रहा हूँ। फिर किस लिये ऐसा अमानुषिक तप-त्याग? निरानन्द वैराग्य, उदासी और विषाद, दुःखवाद, क्षणिकवाद। और फिर झूठे निर्वाण का दिलासा ।
'किसने देखे हैं मोक्ष और निर्वाण ? किसने देखे हैं जन्मान्तर और लोकान्तर? जो है सो केवल वर्तमान है। प्रस्तुत क्षण ही शाश्वती है। अभी और यहाँ जीवन को पूर्ण भोगो, पूर्ण जियो। इस निरन्तर चक्रायमान संसार को अबाध भोगते चले जाना ही जीवों की एक मात्र गति और नियति है। प्रत्येक जीव का नियति-भ्रमण पूरा होने पर, उसकी मुक्ति अपने आप हो जाती है। अनुभव की अग्नि में तपते-तपते ही, फौलाद कांचन हो जाता है।
'इसी से कहता हूँ भव्यो, सारे धर्मों, वेद-वेदान्तों, तीर्थकरों, भगवानों के भ्रमों से मुक्त हो जाओ। वर्तमान को खुल कर भोगो और जियो । खाओपियो, मौज करो और वीणा बजाओ। पाप-पुण्य का भय बिसार दो। निर्भय
और निर्द्वन्द्व होकर जीवन को खेलो, और पाओगे कि मुक्ति स्वयम् तुम्हें गोद लेने को तुम्हारे पीछे भागी फिर रही है।
..देखो देखो, तुम्हारा एकमेव मुक्तिदाता, परित्राता आ गया। नाचोगाओ, सुरापान करो, सुन्दरी-पान करो, यौवनपान करो। पुष्पोत्सव करो, मुक्त विहार करो, विहंग रमण करो। जैसे कपोत और कपोती। जैसे मृग
और मृगि। इन सब में सविता-सावित्री का युगल ही तो निरन्तर खेल रहा है। फिर बाधा कैसी ? भय कैसा? ___'मेरी इस आकाशी वीणा को सुनो । (टन्न-टन्न झन्न-झन्न : गोशालक ने वीणा झन्ना दी ) मेरे इस सुरा-कुम्भ का अमृतपान करो । -(उसने वारुणी गटका कर चषक लुढ़का दिया) । और देखो, परमा सुन्दरी भगवती हालाहला को देखो। यही सृष्टिघट की आद्या कुम्भकारिन है। यही विश्व-ब्रह्माण्डों को एकमेव विधात्री है। यही सावित्री, गायत्री और ब्रह्म की छाया-माया है। यह स्वयम् अनाद्यन्त प्रकृति-सृष्टि है। यही इरावती अप्सरा है। यही महामंखेश्वर एकमेव पुरुष की एकमेव युगलिनी सहरेता है।
'पान करो, गाओ, नाचो, फूलों की धूल उड़ाओ, एक-दूसरे में लीन हो जाओ।"देखो देखो आदि युगल गान-पान-तान में लीलायमान हो रहे हैं ।...' कह कर गोशालक उन्मत्त हो नृत्य करने लगा। __ और हालाहला भी आवेश में आ कर, सुरापान करती हुई मर्मर सिंहासन पर चढ़ गोशालेश्वर के साथ अंग जुड़ा कर, प्रमत्त हो नाचने-गाने लगी। बीच-बीच में वे दोनों रह-रह कर, नृत्यों के भंग तोड़ते, झुक कर वीणा के तारों को झन्ना देते । और चारों ओर से सेवकगण पुष्प और अबीर-गुलाल को वर्षा करने लगे।
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