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________________ १३९ अवसर्पिणी के चरम तीर्थंकर महामंखेश्वर जिनेन्द्र मक्खलि गोशाल यहाँ प्राकट्यमान हैं । स्वयम् सत्ता उनमें अवतरित हुई है । 'सुनो रे वेदवादी ब्राह्मणो और सवर्णो सुनो सुनो रे चाण्डालो, चर्मकारो, दलित शूद्रो, अन्त्यजो, सुनो। वेद के अग्निदेवता अंगिरस यहाँ अवतरित हैं । परमाग्नि का लोक में विस्फोट होने वाला है । उसमें अब तक के सारे अत्याचारी देवता, प्रभु, तीर्थंकर और उनके पूजक प्रभुवर्ग जल कर भस्म हो जायेंगे। देखो, देखो, सविता और सावित्री यहाँ उपस्थित हैं । भर्ग और गायत्री यहाँ उपस्थित हैं । वृष-सोम, रयि-प्राण, दोनों अश्विनीकुमार, मित्रावरुण और अग्निषोम के आदि युगल यहाँ उपस्थित हैं । वेद के सारे देवीदेवता, वेदान्त के ब्रह्म और माया मंखेश्वर के श्रीपाद में शरणागत हैं । प्रकृति और पुरुष की नग्न लीला यहाँ खुल कर सामने आ गयी है । वेद और वेदान्त यहाँ पराजित हैं। आज तक के सारे श्रमण, जिनेन्द्र, तीर्थंकर यहाँ अतिक्रमित हैं । 'चरम सत्य है, नर-नारी की उन्मुक्त युगल लीला । उसी में से निरन्तर संसार आ रहा है, और उसी में लय पा रहा है। महामंख ने अनादि समुद्र का मंथन किया है । उसमें से प्रकट हुई है सुरा, सुन्दरी, वीणा, नृत्य करती अप्सरा, नील रेतस्- जल में उलंग खेलती रातुल पद्म-सी नारी । आदि पुरुष और आद्या योषा का अखण्ड निबिद्ध मिथुन । यही एक मात्र सम्यक् दर्शन है, सम्यक् ज्ञान है, सम्यक् चारित्र्य है । यही वेद और वेदान्त का सार है । यही आदि तीर्थंकर अवधूत ऋषभदेव की गुप्त धर्म-प्रज्ञप्ति है । उसका रहस्य प्रथम बार मंखेश्वर ने साक्षात् किया है । ...नत्थि पुरस्कारे, नास्ति पुरुषकारं । पुरुषार्थ व्यर्थ है, तप-त्याग, संयमनियम निष्फल हैं । सारी सृष्टि एक नियत क्रम में अनादि - अनन्तकाल में चक्राकार घूम रही है, और उसमें नर-नारी का अबाध मैथुन चल रहा है । तुम कुछ कर नहीं सकते, जो होना होता है, वही होता है । कोई कारण कार्य नहीं, कोई हेतु -प्रत्यय, कोई पौरुष, प्रयत्न, उपाय, परिणाम नहीं । कोई स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, मोक्ष- निर्वाण अन्यत्र कहीं नहीं । कुछ भी प्राप्त नहीं करना है, बस केवल बहते जाना है, होते जाना है, और एक दिन मुक्ति स्वयम् ही हो जायेगी । 'महावीर ने घोर तप करके क्या पाया? मैं छह वर्ष उनके तप में साथ रहा। वे दारुण यंत्रणा झेलते रहे, मार खाते रहे, और अपने को बचाने में सदा असमर्थ रहे। झूठी जय-जयकारों में भ्रमित हो, भगवान् होने के चक्कर में पड़े रहे । बुद्ध ने सोयी सुन्दरी छोड़, गृहत्याग कर क्या पाया ? रोग, जरा, मृत्यु को वे कहाँ जीत पाये ? क्या उनका शरीर अजर-अमर हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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