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'देवी मृत्तिका हालाहले, अपना सर्वाधिक प्रिय ताज़ा मृद्भाण्ड भट्टिका में तपने को स्थापित करो।'
देवी ने तुरन्त आदेश का पालन किया। मंखेश्वर बोले : _ 'इसी मृद्भाण्ड में से चरम तीर्थंकर मक्खलि गोशाल के नव मन्वन्तर विधायक वैश्वानर प्रकट होंगे।'
देव-पुत्र मक्खलि गोशाल की जयकारें होती चली गईं। और इसी बीच जाने कब गोशाल गुरु वहाँ से अन्तर्धान हो गये।
० अगले दिन बड़े सबेरे ही, हालाहला कुम्हारिन के विस्तीर्ण आम्रकुंज में श्रावस्ती के हजारों-हजार स्त्री-पुरुषों का ठट्ठ जमा हो गया है । मर्मर के भव्य सिंहासन पर, महामंखेश्वर भगवान् मक्खलि गोशालक निश्चल विराजमान हैं। वे जामुनी अन्तर्वासक धारण किये हैं। उनका शेष गौरांग शरीर उघाड़ा है। वह किसी अन्तरित ज्वाला से देदीप्यमान है। मानो साक्षात् अग्निदेव ही वहाँ अवतरित हुए हैं। भूरी श्मश्रु दाढ़ी से शोभित, उनके तप्त ताम्र-से दहकते मुख-मण्डल पर, गुंजल्कित भुजंगम जैसी कुटिल अलकें लहरा रही हैं।
वे अपने एक हाथ में नवीन वेणु-दण्ड धारण किये हैं। उनके कंधे पर सिंदूरी झोली लटक रही है। उनकी दायीं ओर एक वेतस् कुण्डिका (औषधिमंजूषा) पड़ी है। उनकी बायीं ओर मदिरा का रत्न-कुम्भ शोभित है। वह नीलम के चषक से ढंका हुआ है। उनके सामने एक महार्घ्य विशाल हस्तिदन्त वीणा प्रस्तुत है।
सिंहासन के समतल ही, वाम पक्ष में सामने की ओर बिछे एक मणिकुट्टिम पीठ-भद्रासन पर, सुन्दरी हालाहला सुस्थिर भाव से आसीन है। जामुनी अन्तर्वासक, रक्तांशुक उत्तरीय, और फूलों के कंकण, केयूर, कंठ-हार से अलंकृत वह श्यामांगी, सिन्दूर का तिलक धारण किये, नवीन मेघमाला में चित्रित दामिनी-सी वहाँ शोभित है ।
हजारों की जन-मेदिनी स्तब्ध एक टक महागुरु मंखेश्वर को ताक रही है। कि अभी कोई चमत्कार होगा, कोई आकाश-वाणी सुनाई पड़ेगी। कि हठात् मंखदेव ने सामने पड़ी वीणा के एक तार को जोर से खींच कर टंकार दिया : झन्न झनन् 'झन्न। और नेपथ्य में कहीं घोर दुंदुभि-घोष और तुरही-नाद हुआ। फिर सन्नाटा फिर वीणा के खरज-तार में एक क्रुद्ध झंकार। एक दुर्मत्त हुंकार। और सहसा ही प्रत्याशित आकाशवाणी सुनाई पड़ी : ।
'तीनों लोक और चौदहों भुवन सुनें । नंदीश्वर द्वीप, विदेह क्षेत्र, जम्बूद्वीप, भरतखण्ड, आर्यावर्त, आसमुद्र पृथ्वी सुनें। सकल चराचर सुनें।
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