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________________ १३७ अपनी कुसुम्बी फूल-कंचुकी में आबद्ध अपने यौवन को कृतार्थ गर्व से निहारा। कि सहसा ही फिर सुनाई पड़ा : 'और सुनो देवांगी, आज रात तुम अपनी इस भाण्ड-भट्टिका को जल'धाराओं से सम्पूर्ण बुझवा देना। पुरातन पार्थिव अग्नि को विसर्जित करा देना। कल ब्राह्म मुहूर्त में, हम तुम्हारी भट्टिका में अपने नाभि-कमल की दिव्य अग्नि प्रक्षेपित करेंगे। वह लोक के एकमेव जिनेन्द्र गोशालक की दिव्य कैवल्याग्नि होगी। उसमें से नूतन युग-तीर्थ का मंगल-कुम्भ अवतीर्ण होगा। तुम्हारे सारे घट-भाण्ड इसके बाद दिव्य प्रसाद होकर, लोक के घर-घर में मंगल-कल्याण का घट स्थापन करेंगे।' 'और कुछ आदेश, भगवन् ?' 'अब तुम जा सकती हो, देवी ! भगवान् गोशालक फिर ध्यानस्थ, निश्चल हो गये। उनका त्रिवार वन्दन कर, उन्हें लौट-लौटकर निहारती हुई हालाहला, चुपचाप वहाँ से चली गई। पीछे द्वार बन्द हो गया। वह जा कर अपने शयन-कक्ष के पलंग पर पड़ गई। उसे लगा कि उसके रूप-लावण्य में किसी लोहित पावक की तरंगें उठ रही हैं। और वह अपने ही सौंदर्य का आसव पीकर मदोन्मत्त होती जा रही है। वह अपनी ही मोहिनी में मूछित होकर, डूबी जा रही है। ... उस रात्रि के तीसरे प्रहर में ही मृत्तिका की भाण्डशाला मंगल-दीपों से जगमगा उठी। ठीक ब्राह्मी बेला में घंटा-घड़ियाल बज उठे, शंखनाद और डमरू-घोष होने लगा। सारे कुंभार-कम्मकर अग्निशाला में एकत्र उपस्थित थे। देवी हालाहला केशरिया मंगल-वेश धारण करके वहाँ मानो सहसा ही प्रकट हुईं। अपने ही हाथों उन्होंने, सर्वथा ठण्डी पड़ी भाण्ड-भट्टिका में गोशीर्य चन्दन-काष्ठ की अरणि रची। उस पर कुंकुम-अक्षत, अगुरु-तगुरु, कपूर-केशर, धूप-धूपांग अर्पित किये । श्रीफल से ढंका घृत-कुम्भ स्थापित किया। पुष्पांजलि वर्षा की। अविराम शंख-घण्टा निनाद के बीच सहसा ही मंख-पुत्र गोशालेश्वर वहाँ प्रकट हुए। एक हुंकार के साथ उन्होंने सर्वनाशी मुद्रा में ताण्डवी पदाघात किया । और फिर, 'जागजागचेत चेत. भवानी... !' कहते हुए भट्टिका के मुख-द्वार में भयंकर भ्रू-निक्षेप किया। एक जलता अग्नि-बाण उनकी भृकुटी से स्वतः विस्फोटित होकर, महाभट्टिका में प्रवेश कर गया। ___ ना-कुछ देर में ही भट्टिका मानो किसी ज्वाला-गिरि-सी दहक उठी। लपटों के एक वन से जैसे वह छा गयी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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