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'अर्हत की अर्धांगना? सच ? असम्भव सम्भव हो गया? एकल विहारी अर्हत् मेरे साथ युगल हो गये? सुना नहीं कभी ऐसा ! ...'
'लेकिन प्रत्यक्ष देख तो रही हो न?' 'स्वप्न या सत्य ?' 'केवल सत्य । केवल एक पुरुष, केवल एक नारी। आदि पुरुष, आद्या प्रकृति
भोली हालाहला को लगा, जैसे वह कोई परावाणी सुन रही है। किसी अश्रुतपूर्व सत्य का साक्षात्कार कर रही है। उस सुन्दरी मोहिनी को मंत्रकीलित देख, गोशालक निश्चल स्वर में बोला :
‘पहचानो कल्याणी ! तुम्हारी अग्निशाला में प्रति-तीर्थंकर भगवान् मक्खलि गोशालक आज अवतरित हुए हैं !'
'चरम तीर्थंकर महावीर के प्रतिनिधि ?'
'प्रतिनिधि नहीं, प्रतिवादी, प्रतिद्वंद्वी, प्रति-तीर्थंकर। हम वीतराग को पूर्ण राग से जीतने आये हैं। विराग नहीं, अतिराग ही हमारा अचक मुक्तिमार्ग है। हम इन्द्रियों के दमन से नहीं, तर्पण और उत्थान से सहज मुक्ति में विचरते हैं। हमारी मुक्ति पारलौकिक नहीं, इहलौकिक है। उधार की नहीं, तत्काल की है। वह अभी और यहाँ, वर्तमान और सहज लब्ध है। हम मुक्ति को जीवन के प्रति क्षण में भोगते हैं। "तू मेरी प्रथम वरिता शिष्या हुई, कल्याणी। तू इसी क्षण मुक्त हो गई। तू जातरूप निग्रंथ हो कर, जातवेद पुरुष से आत्मसात् हुई। देख, तेरा अन्तर्वासक तेरे प्रभु ने धारण कर लिया। स्वयम् तेरे तारणहार ने तेरा वरण कर लिया। दर्शन कर, दर्शन कर, और मुक्ति लाभ कर !'
हालाहला लज्जा त्याग, उन्मुक्त खड़ी हो, अपने मुक्त पुरुष को निहारती हुई, मुद्रित नयन समर्पित हो रही ।
'देवी, वेणुवन से एक नया बाँस-दण्ड मंगवाओ । एक वेतस् कुण्डिका मँगवाओ। एक झोली मंगवाओ। व्याघ्र-चर्म के उपानह मँगवाओ। यही वेश धारण कर, कल प्रातःकाल तुम्हारे आम्रकुंज़ के मर्मर सिंहासन पर, अवसर्पिणी के प्रति-तीर्थंकर, एकमेव लोक-तारक भगवान् मक्खलि गोशालक लोक में प्रथम बार प्रकट होंगें। उनकी प्रथम धर्म-पर्षदा तुम्हारे ही आँगन में होगी। नक्काड़ा बजवा कर, श्रावस्ती के सारे नगर-द्वारों, त्रिकों, चौहट्टों, अन्तरायणों, पण्यों में यह उद्घोषणा डंके की चोट करवा दो।'
कह कर भगवान् मक्खलि गोशालक आँखें मींच कर अपने आसन पर निश्चल हो गये। हालाहला को लगा, जैसे साक्षात् अंगिरा उसकी अग्निशाला में प्रकट हुए हैं। उसने अपने केशरिया उत्तरीय को कटि पर धारण किया।
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