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यों बात की बात में छह महीने निकल गये । गोशालक की तपस्या समापित हो गई । अन्तिम छठ के उपवास की समाप्ति होने पर, उसे अनायास अपनी नाभि में एक ज्वाला लहकती अनुभव हुई । सो ब्राह्म मुहूर्त में ही उठ कर, वह चुपचाप दूर वन के एकान्त में चला गया । भोर फूटते न फूटते उसने अपनी लब्धि को जाँचना चाहा । अपने सारे संचित कोप को उसने झंझोड़ कर जगाया । हठात् उसकी नाभि फट पड़ी। एक प्रचण्ड कृत्या की ज्वाला उसमें से फूटी । उसने उसे सामने खड़े पहाड़ पर फेंका। पहाड़ धू-धू सुलग उठा । कितने ही वन्य पशु चीत्कार करते धराशायी हो गये । ओ, तेजोलेश्या सिद्ध हो गई ! वह चाहे तो अब सारे ब्रह्माण्ड को जला कर भस्म कर सकता है ।
गोशालक हर्षोन्मत्त हो लौट पड़ा। और फिर अपने कक्ष में बन्द हो गया । ऊषा बेला में हालाहला स्नान-सिंगार कर, बड़ी उमंग से पारण थाल लिये आयी । अगले ही क्षण वह कक्ष में उपस्थित हुई । छह महीनों बाद स्वामी ने प्रथम बार एक वीतराग स्मित से मुस्करा कर उसकी ओर देखा । मौन मौन ही पारण सम्पन्न हो गया । गोशालक ने एक गहरी मुक्ति और शक्ति एक साथ अपने अणु-अणु में अनुभव की । दृष्टि उठा कर उसने सामने हाथ जोड़, नतमाथ खड़ी सुन्दरी को आचूल-मूल एक टक निहारा। उसने आज गहरा जामुनी अन्तर्वासक और केशरिया उत्तरीय धारण किया था । अंगराग, प्रसाधन, पत्रलेखा और फूलों के अलंकारों से वह सुशोभित थी ।
'देवी हालाहला !' छह मास बाद प्रथम बार श्रमण ने मौन तोड़ा । 'स्वामी ! '
हालाहला ने माथा उठा कर श्रमण को देखा । उसका सारा शरीर किसी दैवी अग्नि से प्रदीप्त दिखायी पड़ा । श्रमण ने सुन्दरी की आँखों में छलकती आद्या वारुणी देखी। उनकी दृष्टियाँ गुम्फित हो गई । श्रमण ने आविष्ट हो कर, हाला का जामुनी अन्तरवासक खींचा। एक ही झटके में वह खुल पड़ा । सुन्दरी लज्जा से मर कर वहीं स्वामी के चरणों में सिमट कर ग्रंथि हो पड़ रही ।
'अपने स्वामी से लज्जा कैसी, हालाहले ! मैंने तुम्हारी अन्तिम ग्रंथि खोल दी । अब भी ग्रंथिभूत ही रहोगी ? मुक्त हो कर, सामने मुक्त पुरुष को देखो ! ' हालाहला एक पुष्पांजलि-सी उठ कर अपने स्वामी को उन्मीलित नयनों से निहारती रह गई । कि सहसा ही उसे सुनाई पड़ा :
'आज से तुम्हारा यह अन्तरवासक, मैं धारण करूँगा । अपने अध्वांग में तुम्हें पहन कर मैं तुम्हें अपने ऊर्ध्वो के महलों में ले चलूँगा । परम लब्धि लाभ के इस मुहूर्त में तुम अर्हत् की अर्द्धांगना हुई ! '
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