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फिर वैसा ही पारण। छह मास तक यही अटूट क्रम चलेगा। अविलम्ब व्यवस्था करो, भवन्ति ।'
'इस कान्त सुकुमार काया से ऐसा कठोर तप, स्वामी ? मुझ से सहा नहीं जाता !'
मृत्तिका की आवाज़ भरभरा गयी। उसकी आँखें भर आईं। और गोशालक में मन्दराचल को उच्चाटित कर देने की प्रचण्ड शक्ति लहरा उठी। अरे, अब महावीर तो क्या, वह अपने तप से स्वयम् मृत्यु को जीत लेगा।
थोड़े ही समय में हालाहला ने अपनी अग्निशाला के सन्मुख-कक्ष में आदेशानुसार व्यवस्था कर दी। गोशालक नासाग्र दृष्टि से भूमि निहारता, गन्तव्य स्थान की ओर चला। और एक बार भी हालाहला की ओर देखे बिना, कक्ष में प्रवेश कर उसने किंवाड़ बन्द कर लिये। हालाहला का माथा किंवाड़ पर ढलका रह गया। उसकी आँखों के आँसू थम नहीं रहे। वह स्वामिनी कैसे ऐसी हालत में अपने सेवकों को मुंह दिखाये ?
सुन्दरी हालाहला को पाकर, गोशालक पहली बार अपने आपे में लौट आया। क्षणमात्र में उसकी आत्महीनता छूमन्तर हो गई। वह अनायास आत्मस्थ हो गया। उसे लगा कि उसकी नस-नस में शक्ति के समुद्र घहरा रहे हैं। उसने अपने भीतर के किसी अज्ञात ध्रुव पर अपने को निश्चल खड़े पाया । एक अविचल आत्म-श्रद्धा में वह अकम्प और स्थिर हो गया। संयम करना नहीं पड़ा, वह आप ही उसमें प्रकट हो आया। एक सहज संयम के छन्द, लय और ताल में वह अनायास सुसम्वादी हो गया। ___ उसके काम-क्रोध, लोभ, बुभुक्षा अन्तर्मुख हो कर, उसकी चित्तवृत्ति में एकत्र और संचित हो गये। उसकी सारी कषायें, वासनाएँ, वृत्तियाँ, इन्द्रियाँउसके संकल्प में संगोपित हो गईं। मंखों और दासों की तमाम पीढ़ियों के पीड़न का प्रतिशोध, वह इन सारे प्रभुओं और प्रभु-वर्गों से लेगा। वह अपने इस आसन से प्रभुओं का प्रभु और प्रति-तीर्थंकर होकर ही उठेगा। ____ गोशालक के लिये वह कठिन तपस्या भी सुगम हो गयी। उसकी समग्र चेतना हर समय उसके संकल्प, और हालाहला के सौन्दर्य में समाधिलीनसी रहने लगी। हर सातवें दिन हालाहला, छठ के पारण के लिये एक मुष्टि कुल्माष और अंजलि मात्र जल का रत्नकुंभ लेकर, द्वार पर दस्तक देती। द्वार खुलता, वह भीतर जाती, द्वार बन्द हो जाता। दो दृष्टियाँ मिल कर एक हो जातीं। हालाहला के मृदु पाणि-पल्लव से आहार ग्रहण कर पारण सम्पन्न हो जाता। फिर श्रमण सुन्दरी की ओर देखता तक नहीं। वह अविलम्ब वहाँ से बाहर हो जाती। .
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