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हठात् दोनों की आँखें मिलीं। मत्तिका ने देखा, अरे यह तो निरा बालक बटोही है। उसका मन जाने कैसी करुणा और पूर्वराग से भीनां हो आया। गोशालक ने आँखें नीची कर ली। 'भन्ते श्रमण, मैं मृत्तिका कुम्भारिन । मेरा आतिथ्य स्वीकार करें।'
गोशालक ठीक महावीर की तरह मौन रह कर, अलक्ष्य ताकता रहा। मृत्तिका ने बार-बार निहोरा किया, मनुहार की। श्रमण की चुप्पी को स्वीकृति मान उससे पूछा :
'भन्ते श्रमण, कहाँ विश्राम करेंगे? आज्ञा करें, तो व्यवस्था करूँ।'
गोशालक को लगा कि किसी ने उसके भीतर सोये प्रभु को जगा दिया है। उसमें एक अपूर्व आत्मनिष्ठा जाग उठी। अन्तर्मुहुर्त मात्र में ही वह मानो . दास मिट कर स्वामी हो गया। और ठीक स्वामी की मुद्रा में बोला :
'शुभांगी, तुम केवल मृत्तिका नहीं, हालाहला हो। तुम्हारे जन्मान्तरों के पार देख रहा हूँ। जगत् के आदि प्रभात से ही तुम हालाहला हो। यही तुम्हारा असली नाम है । महासमुद्र में से एक दिन तुम वरुण-वारुणी की तरह अवतीर्ण हुई थी। तुम्हारी आँखों में हाला भी है, हलाहल भी है। मैं इन दोनों ही को पी कर तुम्हें मुक्ति देने आया हूँ। जय हो तुम्हारी, सुन्दरी हालाहले !' __मृत्तिका के सारे शरीर में रोमांचन की विद्युल्लेखाएँ खेल गईं। वह जाने कैसी रुलाई से कातर हो आई। भरे गले से बोली : _ 'आज्ञा करें महानुभाव कुमार श्रमण, आपका क्या प्रिय करूँ ?'
'मुझे एक छह मासी तपस्या करनी है, कल्याणी। तुम्हारे भाण्ड पकाने की जो अग्निशाला है, उसी की एक कोठरी में आज से छह मास तक मेरा आवास रहेगा। और एक दिन देखोगी हालाहले, मेरी तपाग्नि ही तुम्हारी भाण्ड-भट्टिका में प्रकट हो उठेगी। उस दिन से तुम्हारे प्रत्येक भाण्ड में एक नया ब्रह्माण्ड आकार लेता जायेगा, मेरी तपोज्वाला में नहा कर तुम्हारी मृत्तिका, तुम्हारा पिण्ड, तुम्हारे भाण्ड अमर हो जायेंगे।'
'आश्चर्य भन्ते, आश्चर्य ! यह कैसी चमत्कार वाणी सुन रही हूँ। कोई दैव वाणी, कोई आकाशवाणी !'
'तथास्तु कल्याणी। अपनी अग्निशाला के अन्तर कक्ष में एक पुरुषाकार शिलासन बिछवा दो। उसी पर मैं छह मास अखण्ड तपूंगा।'
'आहार-चर्या क्या होगी भन्ते ?'
'छह माह तक छठ्ठ तप । “छह दिन निर्जल निराहार उपवास । उसके बाद एक दिन कुल्माष और अंजलि मात्र जल का पारण। फिर छठ्ठ तप,
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