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स्निग्धता। प्रथम आषाढ़ के पुष्करावर्त मेघ में से झरती धनी-घनी कादम्बिनी। और नील-लोहित वारुणी से छलकती, बड़ी-बड़ी कटीली काजल-सारी आँखें।
गोशालक के मन में जाने कितनी उपमाएँ उभरती चली आईं। और उसका जन्मों से सूखा और प्यासा मन रस की आर्द्रा से भीग आया। उसकी चेतना में एक अन्तिम बिम्ब उभरा । "अरे, यह तो हाला भी है, और हलाहल भी है। उसके अपने भीतर चिरकाल से चल रहे समुद्र-मन्थन में से उद्गीर्ण है जैसे यह कन्या : सुरा भी, विष भी, अमृत भी, अप्सरा भी। और वह मन ही मन पुकार उठा : अरी ओ हालाहला! और उस पुकार ने मानो कुम्हारिन को चौंका दिया।
कुम्हार कन्या मृत्तिका के हाथ से हठात् चक्र-दण्ड छूट गया। चाके पर चढ़ा कुम्भ अधूरा ही चक्कर खाता रह गया। उसने देखा, कि द्वार पर कोई निगण्ठ श्रमण अतिथि हो कर आया है। सुडौल, गौर वर्ण प्रलम्ब देहयष्टी। माथे पर छल्लेदार कुन्तलों का जंगल । आशीश-पात धूलि-धूसरित मलिन काया। बालक-सा निरीह, एकटक, भूला भौरा-सा वह उसी को तो ताक रहा है।
नागफणा-से अपने विशाल खुले केश जाल को एक ओर समेट बायें कन्धे से वक्ष पर डालती हुई, रूपसी मृत्तिका धीर-गम्भीर गति से द्वार पर आई। उसने हाथ जोड़, अंजुलि फैला कर माथे पर चढ़ाते हुए श्रमण को संबोधित किया :
'भन्ते श्रमण, तिष्ठः तिष्ठः, आहार-जल शुद्ध है, आहार जल कल्प है !'
ऐसा तीन बार कह कर उसने श्रमण को तीन प्रदक्षिणा दी, और बिना पीठ दिये श्रमण के सम्मुख ही पीछे पग चलती उसे अपनी पाकशाला में लिवा ले गई। उन्हें सादर चौकी पर बैठा कर, चाँदी की थाली में पाद-प्रक्षालन किया। फिर सारी देह का भी गन्धजल के लुंछनों से मार्जन किया। उसके मन में एक अनबूझ भक्ति-भाव अकस्मात् उमड़ आया। जाने कैसा एक अनुराग, एक ममता का उद्रेक, एक सम्वेदन, जैसा पहले कभी किसी के लिये उसके हृदय में नहीं जागा था। उसके जी में एक उत्सुक अनीला कुतूहल उठ रहा था : निगण्ठ महावीर की प्रतिमूर्ति जैसा ही यह युवा श्रमण कौन है? कोई देव-माया तो नहीं ?
गोशालक भी ठीक महावीर-मुद्रा धारण कर, मौन वीतराग नासाग्र नयनों से इस आतिथ्य को सहज स्वीकार रहा था। कुम्हारिन अंजुलि भर-भर पायस, आम्र-रस, मेवा-मिष्ठान्न भिक्षुक के पाणिपात्र में देती ही चली गई। भिक्षुक की भव-भव की भूख एक साथ जाग उठी। कुम्हारिन अविराम खिलाती गई, भिक्षुक छक-छक कर खाता गया।
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