________________
१३१
"और बहुत निरीह, उदास, अकिंचन गोशाला महानगरी श्रावस्ती की ओर जाता दिखाई पड़ा।
०० मक्खलि गोशाल श्रावस्ती के राजमार्ग पर, अपनी पुरानी आदत के अनुसार भिक्षाटन कर रहा है। पर आज उसे न भूख है, न प्यास है। किसी भिक्षा की याचना भी मन में नहीं। बस, एक अबूझ पुकार उसमें उठ रही है। कोई अज्ञात खोज। उसे नहीं पता, वह क्या खोज रहा है। विमनस्क भाव से वह नाक की सीध में चला जा रहा है। सामने बस केवल शून्य है।
कि अचानक एक जगह पहुँच कर उसके पैर रुक गये। उसने पाया कि वह किसी कुम्भकार की विशाल भाण्डशाला के सामने खड़ा है। विस्तृत सायबान तले चलते सैकड़ों चाकों पर, कई कुम्हार माटी के भाण्ड उभार रहे हैं। ठीक केन्द्र के बहुत बड़े चक्र को चला रही है, एक अपरूप सुन्दरी कुम्हार कन्या। चाके पर, कई-कई चूड़ियों और भाँवरों में से आकार लेते भाण्ड जैसा ही, नित-नव रमणीय है उसका लावण्य और यौवन । समुद्र-मन्थन में से उठा आ रहा अप्सरा का उरोज-कुम्भ !
...गोशालक के भीतर का बरसों से सोया कवि जाग उठा। महावीर के साथ तो तप करने और मार खाने में उसकी कविता मर ही गई थी। पहले तो प्रभु वर्गों की चाटुकारिता ने उसकी सौन्दर्य-चेतना, कविता और चित्रकला को कुण्ठित कर दिया था। जड़ भोग में आकण्ठ डूबे अभिजातों के अश्लील सौन्दर्य का रूपांकन करते-करते उसे तीव्र जुगुप्सा हो गयी थी। और जब पिता ने उसे धक्के देकर रास्ते पर फेंक दिया, तो उसकी संवेदना और कविता अपनी अन्तिम मौत मर गई। फिर महावीर तो स्वयम् ही एक ऐसी कविता थे, कि उसकी आग में भस्म होकर फिर नया जन्म लेना होता है। और कोई कविता वहाँ सम्भव ही नहीं थी। _..आज उसका वही नया जन्म हुआ है क्या ? चाके पर दण्ड टिकाये खेल-खेल में कुम्भ उभारती तरुणी कुम्हारिन को देख, उसे अपने अगले-पिछले सारे भव ही भूल गये। उसने स्वयम् कविता को वहाँ अपनी रचना करते देखा। उसकी सुप्त काव्य चेतना ज्वारों-सी उमड़ने लगी। लम्बी, लचीली, साँवली देह में सुनील जल-वलयों सा लहराता लावण्य । आदिम धरती की काली माटी में से सीधे आकार ले आयी, साँचे ढली, सुघर देह-यष्टि। यात्रापथ में कहीं देखे सघन श्याम फलभार-नम्र जम्बूवन जैसा गदराया यौवन । कपिशा के काले अंगूर-गुच्छ जैसी रातुल-श्यामल लावण्य प्रभा। काश्मीर की काले गुलाबों से व्याकुल घाटी। कृष्ण-कमलों से भरी कोई मकरन्द छायी पुष्करिणी। रस-सम्भार से अवनत अंगों का कदली-गर्भ जैसा गोपन मार्दव और
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org