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क्षुप देख मैंने प्रभु से पूछा : क्या यह फलेगा ? उत्तर सुनाई पड़ा 'हाँ, फलेगा। इन सातों ही फूलों के जीव एक ही फली में सात तिल होंगे ।' कह कर प्रभु आगे बढ़ गये। मैंने वह तिलक्षुप उखाड़ फेंका। चुनौती थी कि इस बार महावीर के कथन को व्यर्थ कर दूंगा । और मैं फिर प्रभु का अनुसरण कर गया। इस बीच अकाल ही वर्षा हुई, और हम चर्या करते हुए फिर उसी तिल-क्षुप की राह लौटे । चिह्नित स्थल पर तिलक्षुप न देख मैंने कहा : भन्ते, वह तिलक्षुप नहीं फला । उत्तर सुनाई पड़ा : 'फला है, पास ही दूसरी जगह पर देखो।' उखाड़ कर जहाँ फेंक गया था, वहाँ तिलक्षुप जम कर फल आया था । एक ही फली में सात तिल प्रत्यक्ष थे ।
अन्तिम निश्चय हो गया पुरुषार्थ व्यर्थ है, नियति ही एक मात्र अटल सत्य है। स्वयम् महावीर ने उसका साक्ष्य दे दिया। फिर भी क्यों ये मुक्ति के लिये ऐसी दुर्दान्त तपस्या कर रहे हैं? क्यों इतने दारुण दुःख झेल रहे हैं ? इसका निराकरण मेरे पास है । अग्निलेश्या । जीवन-वासना की अदम्य, अनिवार्य अग्नि । उसका विस्फोट । यही है गोशालक का मुक्ति-मार्ग । अब तक की सारी प्रभुताओं का प्रतिकार केवल मैं ―― मक्खलि गोशालक
'अच्छा आर्य, अब मैं आप से बिदा लेता हूँ । आपसे अपने स्व-भाव का मूल मंत्र पा गया। अग्निलेश्या । उसे सिद्ध करूँगा । और यदि मैं भी किसी दिन कुछ हो सका, तो फिर आप से मिलूंगा । आप यदि मेरा उत्तर न हो सके, तो मुझे स्वयम् अपना उत्तर हो जाना पड़ेगा ! '
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···वैशाली के देवांशी राजपुत्र ने कोई उत्तर न दिया । मेरी ओर देखा तक नहीं । मुझे पीठ दे कर, अपनी राह पर चले जाते दिखाई पड़े। और मैं कई दिनों, कई बियाबानों की खाक छानता, कल सन्ध्या में यहाँ आ पहुँचा । ··· अचीरवती के शीतल पवन, और शान्त लहरों ने मेरी थकान को सहलाया । नदी- माता ने इस देवद्रुम-वन की शिला का शयन मुझे दिया। अब सबेरे की प्रत्यूष बेला में देख रहा हूँ : दूर पर कोशलेन्द्र की ऐश्वर्यशाली राजनगरी श्रावस्ती अपने रत्न-कलशों से दमकती, ठुमकती, अलसाती, अंगड़ाई भरती खड़ी है ।
.... कितना बेसहारा, अकिंचन, अनाथ, फिर मैं अकेला अपने आमने-सामने हूँ। पर मेरे पास अमोघ अग्निलेश्या की रहस्य - कुंजी है आज । लेकिन उसे सिद्ध करने को कोई आलय, कोई निलय, कोई प्रश्रय मुझे इस महानगरी में कहीं मिलेगा ?
''अरे कहीं कोई है इस पृथ्वी पर, जो मेरे भीतर उठ रहे इस आर्त्तनाद को सुनेगा ? कोई है कहीं, जो मेरी इस अनाथ वेदना को सनाथ करेगा ? कोई है कहीं, जो मुझे समझेगा, पहचानेगा ?
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