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मेरे भीतर वह विद्या प्रकाशित कर दी। लेकिन शीतलेश्या का रहस्य पूछने पर वे मौन रहे । फिर सुनाई पड़ा वह कषायों के निर्मूल हो जाने पर, योगी के प्रशम और करुणा के उद्रेक में से स्वतः फूट पड़ती है: एक सर्वशामक जलधारा । उसकी कोई विधि नहीं ।
.... मेरे मन में एक भयंकर निश्चय जागा । मैं तेजोलेश्या सिद्ध करूँगा । ... मुझे भी मिल गई प्रभुता की कुंजी । मेरे भीतर एक गहरे रहस्य का स्फोट हुआ : प्रभुता केवल दम और शम की नहीं होती : अदम, उद्दाम और विषम की भी होती है । कषाय का शमन नहीं, उसका चरम विस्फोटन ही मेरा मुक्तिमार्ग है । काम, क्रोध, भूख, प्यास, वासना की निर्बन्ध अभिव्यक्ति । उन्हें दबा कर अन्तिम रूप से नहीं जीता जा सकता। उन्हें निःशंक निर्बन्ध खेल कर ही, उनसे सदा को मुक्त और निर्गत हुआ जा सकता है । मेरे भीतर जो बुभुक्षा की अतल खन्दकें खुदी पड़ी हैं, उन्हें लांघा नहीं जा सकता, केवल भोग से उन्हें भरा और पाटा जा सकता है । कृतमंगला के स्थविर - मन्दिर की उन्मुक्त केलि-क्रीड़ा का भी क्या महावीर ने विरोध किया ? यही तो कहा था : 'मुक्ति-मार्ग सब का अपना-अपना है । सब रास्ते वहीं जाते हैं ।' तो मेरा भी अपना स्वतंत्र मुक्ति मार्ग हो ही सकता है । क्या बार-बार मौन रह कर, प्रभु ने मुझे स्वभावानुसार विचरने की छूट और अनुमति नहीं दी ?
और जो भी कष्ट भोग सामने आया, उसे क्या महावीर भी टाल सके ? वे तो अपने ही को न बचा पाये, तो मुझे क्या बचा पाते। और यह भी तो हुआ था, कि उन्हें तो वैशाली के देवांशी राजपुत्र कह कर सब ने उनके आगे मत्थे टेक दिये। लेकिन मुझ अनाथ अकिंचन को तो सबने मनमाना मारापीटा ही । दीन-दुर्बल, दलित-पीड़ित और ग़रीब का यहाँ कोई नहीं । संन्यासी हो गये तो क्या हुआ । राज-वंशी महावीर ही सदा पृथ्वी पर प्रभुता भोग सकते हैं !
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स्वयम् महावीर ने अग्नि- लेश्या का रहस्य मुझ में खोल कर, चुपचाप मुझे सुझा दिया, कि अपनी जन्मान्तरों की संचित यंत्रणा और अवदमित वासना का विस्फोट ही मेरी एक मात्र शक्ति हो सकता है। एक मात्र प्रभुता । महावीर यदि तीर्थंकर हैं, तो मैं प्रति-तीर्थंकर हो ही सकता हूँ । कोई प्रभुता यहाँ अन्तिम नहीं । हर प्रभुता की कोई प्रति प्रभुता यहाँ अनिवार्य है । यही तो प्रकृति और नियति का अटल विधान है। महावीर के साथ भ्रमण के इन छह वर्षों में क्या इसी सत्य का ज्वलन्त साक्षात्कार मुझे पद-पद पर नहीं हुआ ?
मुझ में एक अदम्य बोधोदय प्रज्ज्वलित था । और मैं सिद्धार्थपुर के मार्ग पर महावीर का अनुसरण कर रहा था। राह में एक सात फूलों वाला तिल
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