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के ख़ज़ाने का भेद पाना चाहते थे । उस समय प्रभु को याद कर, मैंने अपने विरहालाप से सारा जंगल थर्रा दिया। छह महीने इसी प्रकार अनेक यातनाएँ झेल कर, आख़िर मैं फिर प्रभु की खोज में भटकने लगा । और अन्ततः भद्रिकापुर में चन्द्रभद्रा के तट पर सप्तच्छद वृक्ष तले कायोत्सर्गलीन प्रभु को पाकर, मैं उनके चरणों में लोट गया । आह, जैसे वे चरण मेरे ही लिये वहाँ प्रतीक्षा में जड़ित रह गये थे । यह चट्टान- पुरुष भी कहीं भीतर इतना मृदु, इतना प्रियंकर है, अनुभव करके मैं विस्मय-विमूढ़ हो गया था उस दिन ।
फिर आलम्भिका के वासुदेव मन्दिर में, वासुदेव की मूर्ति के सम्मुख मेरा वह अपने काम- दण्ड का निवेदन । देख कर गाँव के लड़कों ने मुझे मार-मार कर अधमरा कर दिया । क्या अपराध था मेरा ? मुझ में काम-वेदना थी, तो उसका वासुदेव निवारण न करें, तो कौन करे ? वीतराग महावीर तो काम को दाद देते नहीं । सो पूर्णकाम वासुदेव की शरण ली। लेकिन न वीतराग महावीर ने मेरी वेदना को प्रतिसाद दिया, न पूर्णराग वासुदेव ने । तब समझ लिया कि धर्म मात्र पाखण्ड है, सत्य सदा कुचला जाता है, पाखण्डों की ओट की पूजा ही सर्वत्र होती है ।
.... ऊष्णाक नगर की राह में जाती एक बारात को देख, कुरूप वर-वधू को सामने पा कर, मेरी सौन्दर्य चेतना पर आघात हुआ । मैंने उनकी कुरूपता पर खुल कर व्यंग्य काव्य का गान किया । तो मार-पीट कर काँटों की झाड़ियों में फेंक दिया गया। मैंने प्रभु से कहा -- कुरूप को कुरूप कहना भी क्या अपराध है, भन्ते ? लेकिन भन्ते तो ऐसे जड़-भरत थे कि कुरूप सुरूप, सुन्दरअसुन्दर, सत्य-असत्य, सब को वे केवल देखते रहते थे । उन पर कोई प्रभाव पड़ता ही नहीं था ।
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याद आ रहा है, कूर्म ग्राम में वैशिकायन तापस आतापना लेता हुआ, अपनी ही नीचे गिरती जूँओं को उठा कर फिर अपने सर में वापस डाल रहा था। यह कैसी पैशाची तपस्या थी । मैल के जंतुओं की दया पालने की यह मूढ़ता मुझे असह्य हो गयी। मैंने प्रभु को लक्ष्य कर, उस तापस पर कड़े व्यंग्य - प्रहार किये । तो उसकी तपाग्नि भड़क उठी । उसके प्रकोप से उसकी नाभि फट पड़ी, और उसमें से फूट कर एक महादाहक अग्नि की लपटों ने मेरे सारे शरीर में ज्वालाएँ जगा दीं । प्रभु ने मेरा असह्य दाह देख, दया से मुझ पर जल-धाराएँ बरसा दीं । पूछने पर प्रभु ने बताया कि पहली अग्निलेश्या थी, दूसरी शीत - लेश्या थी । मैंने प्रभु से अग्नि-लेश्या प्रहार की सामर्थ्य पाने की कुंजी पूछी। उत्तर में वे केवल मुस्करा दिये । और साश्चर्य मैंने पाया कि मेरे भीतर, एक उग्र तपस्या द्वारा वह विद्या सिद्ध करने की विधि आपोआप ही उद्घाटित हो गई । कैसा चमत्कार, कि बिना बोले ही प्रभु ने
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