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स्वर्णखल के मार्ग में यात्रियों को खीर पकाते देख मेरी भूख लपलपा उठी थी। तो हठात् स्वामी ने थप्पड़ की तरह कहा था-यह खीर न पकेगी, हँडिया फट जायेगी। वही हुआ। और धूल में मिला कुछ पायस यात्रियों ने दया करके मुझे भी एक ठीकरे में डाल दिया था। वही एक अनिवार्य नियति । और मैं उसके आगे कितना विवश ! और महावीर भी उसे टालने में असमर्थ ! ब्राह्मण-ग्राम में उपनन्द भू-स्वामी की दासी ने मुझ पर बासी भात डाल दिया था। मेरे इस अपमान पर भी महावीर चुप रहे। मैंने अपने गुरु महावीर के प्रताप की दुहाई दे कर उपनन्द का घर जल कर भस्म हो जाने का शाप दिया। सच ही उसका घर जल कर राख हो गया। मेरी श्रद्धा मेरे गुरु पर उससे दृढ़तर तो हुई। लेकिन उनकी शरण में भी मैं कितना असहाय ? यह बात बारम्बार जो को कचौटती रहती थी।
कोल्लाग और पत्रकाल ग्रामों में हम दोनों ने परित्यक्त शून्य गृहों में रात्रि वास किया था। स्वामी तो ध्यान में डुबे थे। देर रात गये दोनों ही स्थानों पर ग्रामपति के पुत्र अपनी दासियों को ले कर, काम-क्रीड़ा करने आये। मैं चुपचाप उनकी केलि में तल्लीन हो रस लेता रहा। उनके जाते समय मैं कौतुक और काम-पीड़ा से चिहुका, तो उन दोनों ही ग्रामपति के पुत्रों ने मुझे बुरी तरह पीटा, दीवारों से पछाड़ा। मैं प्रभु के चरणों में जा पड़ा, लेकिन उस पत्थर के प्रभु को मुझ पर कोई दया नहीं आयी ! मैंने कुत्सित काम के नग्न वास्तव को खुली आँखों देखा और उसकी संवेदना में सहभागी हुआ, तो मैंने क्या अपराध किया था? क्यों महावीर मेरी उस सत्य-निष्ठा को भी सहानुभूति न दे सके ? __ कुमार सन्निवेश में भिक्षाटन करते हुए, पार्वापत्य श्रमणों के आडम्बर परिग्रह को देख, मैंने चौराहे पर चिल्ला कर उनके पाखण्ड का भण्डाफोड़ किया । तो ग्रामवासियों ने मार-पीट कर मुझे हँकाल दिया। चोराक ग्राम की सीमावर्ती पहाड़ी पर हम दोनों नग्नों को मूक ध्यानस्थ देख, गुप्तचर समझ, कोट्टपालों ने पकड़ा, और मुश्कों से हमें आलिंगन बद्ध बाँध कर अन्धे कुएँ की दीवारों पर पछाड़ा। फिर भी उनके साथ जुड़ कर यातना सहने में मुझे सन्तोष हुआ। मैंने उनके साथ अधिक एकात्मता अनुभव की। फिर भी वे तो मुझ से बेसरोकार ही रहे। रंच भी वे कभी द्रवित नहीं दीखे।
कृतमंगल नगर के प्रत्यन्त भाग में परिग्रही स्थविरों के कुल-देवता मंदिर की वह उत्सव रात्रि याद आती है। सुरापान और नृत्य-गान में परपुरुष और परनारी का भेद भूल, वे स्थविर आराधना के नाम पर उन्मत्त होकर मुक्त क्रीड़ा-केलि कर रहे थे। स्वामी मन्दिर के एक कोने में ध्यानस्थ सब देखते रहे। पर मैं देव-पूजा में उन स्थविरों का यह उच्छृखल दुराचार न
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