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... लेकिन उनमें और मुझमें एक भारी अन्तर था । वे खाये-पिये घर के परितृप्त, हृष्ट-तुष्ट अभिजात थे । पर मैं तो एक दरिद्र कंगाल मंख - पुत्र था । मेरे भीतर तो अभाव और बुभुक्षा की खाइयाँ फैली पड़ी थीं। मैं तो जनमजनम का अतृप्त और भूखा था । मेरी भूख, काम और क्रोध जिघांसा हो कर भड़कते रहते थे । श्रमण महावीर तो प्रायः उपासे रहते थे । मानो जनमजनम में इतना खा चुके थे, कि उन्हें भूख लगती ही नहीं थी । इतना भोग चुके थे, कि उन्हें कोई इच्छा रह ही नहीं गयी थी । सो जब भी मैं उनसे कहता कि : भन्ते, भूख लगी है, भिक्षाटन को चलें । - तो वे कोई उत्तर न देते । 'हूँ' करके रह जाते। उन्हें भूख न भी हो, पर मेरी भूख की भी वे अवहेलना कर देते थे । इससे मैं बहुत पीड़ित, मर्माहत हो रहता । ये कैसे स्वामी हैं मेरे, कि मेरी पीड़ा से इनका कोई सरोकार नहीं ! मैं भीतर ही भीतर रोष से उबलता रहता, पर उन्हें छोड़ कर जाने को ठौर भी कहाँ थी ।
वे तो जब कभी महीनों के उपवास के बाद पारण करते, तो देवदुंदुभि का घोष होता, पंचाश्चर्य होते, सुवर्ण वर्षा और जयजयकार होती । लेकिन क्या मेरी भूख-प्यास और इच्छा का इस जगत में कोई मूल्य नहीं ? मैं एक तीखे कटु विद्रोह से आकण्ठ भर उठता । पर किसे गुहारता । महावीर यों भी उस छद्मस्थ तपस्याकाल में अखण्ड मौन विचर रहे थे । सो मेरे कुछ भी पूछने या विनती करने पर वे तो उत्तर देते नहीं थे । उत्तर कहीं और से सुनाई पड़ता था : किसी पहाड़, झाड़, जंगल या नदी से । लेकिन वह उत्तर तो महावीर का ही होता था, इसमें रंच भी सन्देह नहीं था ।
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''आज जब उनसे बिदा ले कर चला आया हूँ, तो वे सारे प्रसंग एकएक कर याद आ रहे हैं, जब मैंने भी महावीर के साथ अनेक अमानुषिक यातनाएँ झेलीं, प्रहार सहे । याद आ रहा है, कि जब भी मैं अपने भिक्षाटन या भोजन प्राप्ति के बारे में पूछता, तो वे भविष्यवाणी कर देते थे । और वही सच होता था । मानो कि सब कुछ कहीं नियत था ही, केवल दूरदर्शी महावीर उसे देख कर कह भर देते थे ।
''याद आता है, नालन्द में वार्षिकोत्सव के दिन उन्होंने आगाही की थी कि मुझे भिक्षा में मधुरान्न न मिलेगा, कोद्रव, कूर धान्य और दक्षिणा में खोटा सिक्का मिलेगा । और वह सच ही हुआ । सारे नगर में मोदक और पायस का पाक हुआ था । केवल मुझे ही मिला था वह नीरस आहार । मेरे इस दैन्य-दुर्भाग्य पर क्या महावीर को दया आयी ? बस, एक पत्थर जैसी क्रूर भविष्यवाणी ही तो करके वे रह गये थे । एक नियति थी, जिसके आगे सर्वजित् महावीर भी तो पराजित ही थे
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