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________________ १२५ ... लेकिन उनमें और मुझमें एक भारी अन्तर था । वे खाये-पिये घर के परितृप्त, हृष्ट-तुष्ट अभिजात थे । पर मैं तो एक दरिद्र कंगाल मंख - पुत्र था । मेरे भीतर तो अभाव और बुभुक्षा की खाइयाँ फैली पड़ी थीं। मैं तो जनमजनम का अतृप्त और भूखा था । मेरी भूख, काम और क्रोध जिघांसा हो कर भड़कते रहते थे । श्रमण महावीर तो प्रायः उपासे रहते थे । मानो जनमजनम में इतना खा चुके थे, कि उन्हें भूख लगती ही नहीं थी । इतना भोग चुके थे, कि उन्हें कोई इच्छा रह ही नहीं गयी थी । सो जब भी मैं उनसे कहता कि : भन्ते, भूख लगी है, भिक्षाटन को चलें । - तो वे कोई उत्तर न देते । 'हूँ' करके रह जाते। उन्हें भूख न भी हो, पर मेरी भूख की भी वे अवहेलना कर देते थे । इससे मैं बहुत पीड़ित, मर्माहत हो रहता । ये कैसे स्वामी हैं मेरे, कि मेरी पीड़ा से इनका कोई सरोकार नहीं ! मैं भीतर ही भीतर रोष से उबलता रहता, पर उन्हें छोड़ कर जाने को ठौर भी कहाँ थी । वे तो जब कभी महीनों के उपवास के बाद पारण करते, तो देवदुंदुभि का घोष होता, पंचाश्चर्य होते, सुवर्ण वर्षा और जयजयकार होती । लेकिन क्या मेरी भूख-प्यास और इच्छा का इस जगत में कोई मूल्य नहीं ? मैं एक तीखे कटु विद्रोह से आकण्ठ भर उठता । पर किसे गुहारता । महावीर यों भी उस छद्मस्थ तपस्याकाल में अखण्ड मौन विचर रहे थे । सो मेरे कुछ भी पूछने या विनती करने पर वे तो उत्तर देते नहीं थे । उत्तर कहीं और से सुनाई पड़ता था : किसी पहाड़, झाड़, जंगल या नदी से । लेकिन वह उत्तर तो महावीर का ही होता था, इसमें रंच भी सन्देह नहीं था । I ''आज जब उनसे बिदा ले कर चला आया हूँ, तो वे सारे प्रसंग एकएक कर याद आ रहे हैं, जब मैंने भी महावीर के साथ अनेक अमानुषिक यातनाएँ झेलीं, प्रहार सहे । याद आ रहा है, कि जब भी मैं अपने भिक्षाटन या भोजन प्राप्ति के बारे में पूछता, तो वे भविष्यवाणी कर देते थे । और वही सच होता था । मानो कि सब कुछ कहीं नियत था ही, केवल दूरदर्शी महावीर उसे देख कर कह भर देते थे । ''याद आता है, नालन्द में वार्षिकोत्सव के दिन उन्होंने आगाही की थी कि मुझे भिक्षा में मधुरान्न न मिलेगा, कोद्रव, कूर धान्य और दक्षिणा में खोटा सिक्का मिलेगा । और वह सच ही हुआ । सारे नगर में मोदक और पायस का पाक हुआ था । केवल मुझे ही मिला था वह नीरस आहार । मेरे इस दैन्य-दुर्भाग्य पर क्या महावीर को दया आयी ? बस, एक पत्थर जैसी क्रूर भविष्यवाणी ही तो करके वे रह गये थे । एक नियति थी, जिसके आगे सर्वजित् महावीर भी तो पराजित ही थे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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