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________________ १२४ आँखें भूलती नहीं हैं। कैसी करुणा विस्फारित हो कर वे आँखें मेरे चेहरे पर छा गयी थीं। कैसा अकारण वात्सल्य था उनमें। उन आँखों में कुछ ऐसा था, कि उन्हें याद कर मेरा क्रोध, कटुता और द्रोह गल जाता था। मैं मन ही मन कहता-यह मेरी निरन्तर उपेक्षा करता है, फिर भी बारबार अत्यन्त आत्मीय लग आता है। एक ही तो ऐसा वल्लभ इस निर्मम जगत के वीरान में मिला है। मेरे मन की ऊपरी पर्तों में अनेक विक्षोभ ' चलते रहते थे। लेकिन भीतर कहीं तह में आर्य महावीर के चरण गहरे उत्कीर्ण हो गये थे। सो मैं उनका अंगभूत हो कर उनके साथ ही छाया की तरह विचरने लगा। उन्होंने मुझे टोका नहीं, रोका नहीं, यही क्या कम था। लगता था, जैसे उन्होंने मुझे अपना लिया है। इसी से तो मेरी सारी बकझक धैर्यपूर्वक सुनते हैं। कभी वर्जन नहीं करते, भर्त्सना नहीं करते। मेरी व्यथा-कथा का ऐसा धीर और आत्मीय श्रोता तो मुझे जीवन में कभी मिला नहीं था। सो एक पल भी उनसे दूर रहने में मुझे वेदना होती थी। "लेकिन फिर यह क्या हुआ, कि एक दिन अचानक मुझ से बिना कहे ही वे नालन्द से विहार कर गये। मैं बाहर गया था, लौट कर पता चला कि वे तो चले गये हैं, और लौटना वे नहीं जानते। मुझ पर जैसे वज्राघात-सा हुआ। मुझे धोखा दे गये श्रमण महावीर ? मेरी प्रीति को ठुकरा गये? सनाथ करके भी फिर अनाथ कर गये ? अकेला रोता छोड़ कर चले गये ? "पर मैं उन्हें कैसे छोड़ सकता हूँ। मेरा मन-प्राण बहुत उचाट हो गया। क्यों न उन्हीं जैसा निग्रंथ हो जाऊँ। शायद तभी वे मुझे अपनायेंगे। सो मैंने झोली-डण्डा, कुण्डिका-उपानह आदि सब मंखवेश त्याग दिया। मस्तक मुंडवा लिया और उन्हीं जैसा नग्न हो कर, उनकी खोज में निकल पड़ा।" कोल्लाग सन्निवेश में पहुँच कर पता चला, कि वहाँ के विजय श्रेष्ठी के घर एक निगंठ श्रमण ने मासोपवास का पारण किया, तो श्रेष्ठी के घर पंच आश्चर्य हुए, सुवर्ण वृष्टि हुई। मेरे स्वामी के सिवाय और किसका ऐसा प्रताप हो सकता है ? सो मैं उनकी खोज में दौड़ पड़ा। नगर के उपान्त में उन्हें कायोत्सर्ग में लीन देखा। उनके चरणों में लोट कर रो पड़ा। ओह, उन शिलीभूत चरणों में भी कैसी ऊष्मा थी ! अपनी माँ के स्तनों में भी शायद ही कभी वैसी ऊष्मा मैंने अनुभव की होगी। फिर मैं उनके संग हो लिया। मेरी नग्न मुद्रा शायद उन्हें अच्छी लगी हो। लेकिन उन्हें तो कुछ भी न प्रिय है, न अप्रिय है। जो भी हो, उनकी वह विकसित कमल जैसी दृष्टि ही मेरे लिये काफ़ी है । और उनके समीप हूँ, तो जीवन जीने योग्य लगता है । सो मैं फिर पूर्ववत् उनके संग छाया-सा विचरने लगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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