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________________ १२३ सर्प और शूलपाणि यक्ष जैसे पीड़कों को भी उन्होंने अपने प्यार की गोद में शरण दी थी । जाने-अनजाने मैं उन्हीं की खोज में मारा-मारा फिरता रहा । ...कि आज से छह वर्ष पूर्व, नालन्द की तन्तुवाय शाला के श्रमणागार में एकाएक उनसे भेंट हो गई। उनका वह दिव्य रूप देख कर मैं भोला भानभूला सा हो रहा । पिता से जो वाचिक काव्य-विद्या सीखी थी, उस में अनेक उपमा-उपमान, अलंकार, सुन्दर आकार-प्रकार की बातें सुनी थीं । ईश्वरों, देवों, गन्धर्वों के अलौकिक रूप-सौन्दर्य की काव्य-प्रसिद्धियाँ रटी थीं। लेकिन इस आर्य के सौन्दर्य के सामने वे सारे उपमा - उपमान फीके पड़ गये । कामदेव का कल्पित और सारभूत सौन्दर्य भी इसके आगे पानी भरता लगने लगा । मनुष्य की देह में क्या ऐसा भी रूप हो सकता है ? मैंने उन स्वामी का त्रिवार वन्दन किया, और उनके चरणों में बैठ गया । मुग्ध - मूढ़ उन्हें निहारता ही रह गया। मुझे लगा, कि मेरी अनाथ आत्मा को उसका नाथ मिल गया । बस, अब इसी की शरण में रहना है, इसी का अनुगमन करना है, और कहीं भटकना नहीं है । मैं विभोर होकर उनसे विनती की, कि मैं उनका चित्र आँकना चाहता हूँ । भौंडे भद्रों के चेहरे आँकते - आँकते ऊब गया हूँ । चित्र में उतारने लायक़ सौन्दर्य तो पहली बार देखा है । उत्तर में उस आर्य ने केवल सद्य विकसित कमल-सी आँखों से मेरी ओर देखा । पर कोई उत्तर न दिया । मैंने अपनी तमाम काव्य-विद्या को चुका कर उसका स्तुतिगान किया । पर वह श्रमण अप्रभावित, अविचल पाषाण हो रहा । बहुत निहोरा किया कि उसकी कुछ सेवा करूँ । पर उसने कोई प्रतिसाद न दिया । श्रमण की यह उदासीनता और भावहीनता देख, मेरा आर्त्त - रुद्र मन रोष और विद्रोह से भर आया । "आख़िर तो वही अभिजात भद्र राजवंशी है न ? वैशाली का देवांशी राजपुत्र : यही तो इसकी काव्य-प्रसिद्धि सुनी है । घृत-नवनीत, मलाई मेवा से सुपोषित चिकना चेहरा, हृष्ट-पुष्ट शरीर । राजमहल की मुलायम शैया में लालित - पालित सुकुमार काया । उसी से तो इतना चिकना, सुन्दर हो गया है यह आर्य । मैं मूर्ख भावावेश में आ कर इसमें दिव्य सौन्दर्य देखने लगा । इसमें तो कोई भाव नहीं, संवेदन नहीं, कोमलता नहीं, मेरा दर्द तो इसे कहीं से भी छू न सका । निरा पत्थर है । बहुत बोलूँ, तो बस —— 'हूँ'——करके फिर मौन हो जाता है । मेरी ओर देखता तक नहीं ।" ऐसे ही दिन बीतते चले गये । - लेकिन प्रथम बार जब मैंने इस आर्य को सम्बोधित किया था, तब जिन विकच पद्म जैसी आँखों से मुझे इसने एक टक क्षण मात्र देखा था, वे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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