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गाते थे, कि ऋतु और प्रकृति एक अनोखे भाव और रस से भींज जाती थी। मुझे भी उन्होंने अपनी काव्य-संगीत विद्या के कई गहन रहस्य सिखाये थे। पर इस बात से मेरा जी कण्ठ तक भर आता था, कि अपनी दिव्य गान्धर्वी सरस्वती का उपयोग हमें केवल भद्रों के भौण्डे मनोरंजन, और स्तुतिगान में करना पड़ता था। __ थोड़े ही वर्षों में यह सब मुझे असह्य हो गया। मैं बहुत कटु और तिक्त हो चला। मैं जब भाट-वृत्ति करने को अकेला विचरने लगा, तो इन अभिजातों और कुलीनों की स्तुति में व्यंग-काव्य रचने और सुनाने लगा। व्यंगस्तुति-गान गाने लगा। उन्हीं चिकने स्त्री-पुरुषों के चेहरे और शरीर ज्यों के त्यों आँक कर, उन्हीं की नंगी काम-क्रीड़ाओं के आक्रामक चित्र रचने लगा।
परिणाम यह हुआ कि मैं उन महलों और हवेलियों से धक्के और चूंसे मार-मार कर निकाल दिया जाता। कई बार तो लहू-लुहान हो कर लौटता। ऊपर से पिता की मार भी खानी पड़ती। क्योंकि मेरी इस विद्रोही वृत्ति से उनकी आजीविका चौपट हो गई थी।
आखिर एक दिन आजिज़ आ कर मेरे पिता ने मुझे मार-पीट कर निकाल दिया, और कहा कि अपना काला मंह अब हमें कभी न दिखाना।
याद आता है, उस दिन मेरा कोमल हृदय सदा-सदा के लिये टूट गया था। मुझे लगा था, कि संसार में मेरा कोई नहीं है, मैं किसी का नहीं हूँ। मेरा अस्ति व निरर्थक है। मेरा जीना निःसार है। मैं क्यों जीऊँ, कहाँ जीऊँ, किस लिये, किसके लिये जीऊँ ? क्यों है यह जगत, क्यों है यह जीवन ? क्या लक्ष्य है, क्या अर्थ है इन सब का? इन प्रश्नों का उत्तर पाना होगा, या फिर आत्मघात कर लेना होगा।
...और इस यातना के छोर पर पहुँच कर, मुझ में एक दिन हठात् एक अदम्य अस्तित्व-बोध जाग उठा। मैं हूँ मैं कोई विशिष्ट हूँ। इन सारे प्रभुवर्गों से बड़ा कोई प्रभु हूँ मैं। मैं अपने लिये काफ़ी हूँ। मैं कुछ करके दिखा दूंगा। मैं कुछ हो कर रहूँगा। मैं इन सारे प्रभु-वर्गों का प्रभु ! ___और मैं अपने को कुछ बनाने की दिशा में स्वतंत्र पुरुषार्थ करता हुआ, देश-देशान्तरों में भटकने लगा। लेकिन पाया कि कोई अटल नियति थी, जो मेरे सारे मनसूबों को चूर-चूर कर देती थी। एक कराल-कुटिल भाग्य-रेखा को, अवार्य नागिन की तरह अपने चारों ओर फुफकारते देखा। निरुपाय, बेबस, सर्वहारा, आत्महारा मैं भटकता ही चला गया। भूत मात्र के मित्र, महाकारुणिक श्रमण वर्द्धमान का नाम मैंने सुना था। चण्ड कौशिक
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