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___ मेरे पिता के पास एक औषधि-मंजूषा थी। उसमें अनेक मांत्रिक वनस्पतियाँ थीं, अति सूक्ष्म और प्रभावी रसायन गुटिकाएँ थीं, नाग-मणियाँ थीं, कई मारक सरिसृप-विषों की शीशियाँ थीं, उपल और रत्नचूर्ण थे, अदृश्य अलभ्य जंगली पशुओं और पक्षियों की आँखें, सींग, पंख, चर्म थे। इनमें आश्चर्यजनक शक्तियाँ भरी पड़ी थीं। याद आता है, उनके पास कई कुण्डलियों में गुंजल्कित एक अभिन्न सर्प-युगल के आकार का वनस्पति-काष्ठ था, जिसका एक छोर नाग था, तो दूसरा नागिन। उसे सामने रख कर वे प्रकृति की अनेक निगूढ़ शक्तियों के अन्वेषण में लीन रहते । नर-नारी सम्बन्ध की अटूटता का स्रोत खोजते रहते। एक ऐसा अगणित पहलुओं वाला स्फटिक गोलक उनके पास था, जिसमें दृष्टि स्थिर कर वे महद्धिकों और नागरिकों का भविष्य भाखाँ करते थे। एक ऐसा दर्पण बनाने की विद्या वे जानते थे, जिसमें अपना चेहरा देखते ही मनुष्य को अपने जन्मान्तर याद आ जायें। पर वे अपनी दरिद्रता के कारण, वे सारे साधन न जुटा सके थे, जिनसे वे उसके लिये आवश्यक दुर्लभ रत्न-वनस्पति-खनिज-रसायनों की खोज कर सकते । और बेघर होने से कोई स्थान भी उनके पास न था, जहाँ वे अपने रासायनिक प्रयोग कर सकते।
इस कारण पिता का मन बहुत उदास रहता था। केवल दैन्य के कारण, विद्या जानते हुए भी वे उसे सिद्ध न कर पा रहे थे। भाट, कथक, नट, कारु-नट, कवि, चित्रकार, बहुरूपी--मेरे विद्याधर पिता, केवल द्वार-द्वार के अपमानित तिरस्कृत याचक, भिखारी। अभाव, अपमान और अवज्ञा के इस दंश का विष आज भी मेरी नाड़ियों और पसलियों में रिस रहा है। भद्रों, अभिजातों, राजाओं, श्रेष्ठियों के गोल-मटोल मूर्ख भौंतरे, भावहीन चेहरों के सुन्दर नकली चित्र आँकना। उनकी विषय-लोलुपता को तृप्त करने के लिये पाशवी काम-क्रीड़ाओं के चित्र-सम्पुट तैयार करना, और उनके गुप्त कक्षों में उन्हें दिखाते फिरना । “दुपहरियों के सन्नाटे में, जब भद्र पुरुष वर्ग बाहर कर्म-रत होते, तब रनिवासों और हवेलियों में रानियाँ और सेठानियाँ चुपचाप, राह में गाते घूमते हम पिता-पुत्र को अपने एकान्त अन्तःपुरों में बुला लेतीं। और काम-क्रीड़ा के चित्र-सम्पुट देखने में गहरी रुचि लेतीं। नये-नये सम्भोग-चित्र बना लाने को कहतीं। और बदले में हम अगले दिन के आहार का सीधा पा कर, या उनके उतरे वस्त्र पा कर सन्तुष्ट हो जाते।
पिता की आज्ञा से मुझे भी यह सारा कुत्सित चित्र-कर्म करना पड़ता। तीव्र ग्लानि और विरक्ति से मेरा निर्मल किशोर मन उद्विग्न हो उठता। त्राहि कर उठता। इसी प्रकार इन मद्धिक भद्रों की प्रशंसा में कविता और गान भी मुझे रचने होते थे, पिता के साथ-साथ ही। पिता अपने इकतारे के एक तार में ऐसा मोहक निगूढ़ संगीत जगाते थे और ऐसी तन्मयता से
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