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________________ १२० ""ऋषि-वंशी कुटीरवासी ब्राह्मण तो जाने कब से भिक्षावृत्ति त्याग कर, राजाओं और श्रेष्ठियों के क्रीतदास पुरोहित हो गये। उन्हीं महद्धिकों की तरह वे भी अब आरण्यक चर्या से च्युत हो कर, महानगरों की अट्टालिकाओं में निवास करते हैं। लेकिन हम शूद्र कहे जाते मंख-भाट, शुद्ध अपरिग्रही ब्राह्मण-वृत्ति से जीते हैं। हम घर नहीं बसाते, कोई परिग्रह नहीं रखते। राहराह भटकते, काव्य-गान करते, चित्र आँकते हुए, हम महद्धिकों और लोकजनों का रंजन करते हैं। घर-बार विहीन, अनगार, आवारा, यायावर, राहराह के भिखारी। अविराम पंथ-चारी। किसी नदी-तट पर या पथवर्ती पांथशाला में कुछ दिन ठहर कर फिर आगे बढ़ जाते हैं। हमारे पूर्वज मंख-पुरुष मधुकरी करके जीते आये हैं। मधुमक्षिका की तरह गीत-गुंजन करते हैं। अस्थायी मधु-नीड़ रचते हैं। कोई स्थायी निवास कहीं नहीं बनाते। मेरे पिता भी तो इसी वृत्ति से विचरते थे। आकाशवृत्ति, सच्ची ब्राह्मण वृत्ति। इतने निविशेष थे मेरे वे पिता, कि उनका नाम ही भूल गया है। बस एक मंख-पुरुष, मेरे कोई नगण्य पिता। माँ का भद्रमुख मेरे चेहरे में उतरा है, इसी से उसका नाम याद रह गया है-भद्रा । सच ही कितनी भोली, भद्रा थी वह। भद्रवर्गी प्रभु लोग तो भद्र होते नहीं, भौण्डे और भयानक होते हैं। केवल भद्र चेहरा रखते हैं। लेकिन मैं शूद्र अभद्र भाट का बेटा, भीतर-बाहर से बस कोरा भद्र हूँ। अर्थात् नितान्त मूढ़ हूँ : विशुद्ध मूर्ख । शूद्रा भद्रा का जाया। इसी से मेरे गुरु श्रमण महावीर भी तो प्रायः मुझे 'भद्रमुख' कह कर सम्बोधन किया करते थे। "याद आ रही है अपने जन्म की कथा। मेरे माता-पिता उन दिनों ऐसा ही अस्थायी मधु-नीड़ रच कर मगध के सरवण ग्राम में, गोबहुल नामक धनी ब्राह्मण की गोशाला में निवास करते थे। पिता दिन भर 'सावनी' या 'शारदीया मधुकरी' माँगते फिरते, और सन्ध्या को उसी गोष्ठ में आ कर, अपनी पत्नी भद्रा के साथ निवास करते। गोबहुल की उस गोशाला में ही मेरा जन्म हुआ। इसी से गोशालक नाम पाया। दस-बारह वर्ष की उम्र तक ,अपने पिता से ही मैंने कुछ विद्या सीखी। व्युत्पन्न था, सो थोड़े में ही बहुत सीख गया। और फिर उन्हीं के साथ द्वारद्वार डोल कर मंख-वृत्ति करने लगा। स्पष्ट याद आता है, मेरे पिता बड़े ज्ञानी-गुणी जन थे। कई गुह्य विद्याएँ वे जानते थे। यायावर जीवन में देशदेशान्तर भटकते हुए, कई गुप्तवेशी गुणीजनों से टकरा जाते। उनकी सेवा करते, और उनसे अनमोल विद्याओं के खजाने पा जाते । झाड़ फूंक, ओझागीरी, मंत्र-तंत्र, ज्योतिष, भूत-प्रेत-निवारण, परलोक-विद्या, रत्न-विज्ञान, औषधिविज्ञान । अगम वनों में उगने वाली दुर्लभ औषधि-वनस्पतियों की पहचान । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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