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'किसने देखे हैं जन्मान्तर, लोक-परलोक, मोक्ष-निर्वाण ? सारे लोकपरलोक, स्वर्ग-नरक, मोक्ष-निर्वाण, सब मेरी इस झोली में हैं। तुम्हारे सारे रोगों की औषधि मेरी इस झोली में है। मेरे पास ज्ञानांजन-शलाका है। आँज दूंगा तुम्हारी आँखों में, तो सारे अज्ञान के आवरण छिन्न हो जायेंगे। लोकपरलोक, संसार-निर्वाण के सारे रहस्य खुल जायेंगे। अभी और यहाँ तुम सारे भव-तापों से त्राण पा जाओगे। ___ 'मैं हूँ प्रति-तीर्थंकर! सारे वर्तमान तीर्थंकरों का घट-स्फोटक । तुम्हारे घट-घट की जानने वाला एक मात्र सर्वज्ञ अर्हन्त । मैं हूँ एक मात्र उपाय। तरण-तारण, भव-निवारण, महाभविष्यत्-केवल मैं । "
कौन है यह प्रति-तीर्थकर, जिसने सारे वर्तमान आर्यावर्त में खलबली मचा दी है ? जिसने सारे ढाँचों, धारणाओं और धाराओं को तोड़ दिया है। कौन है यह दुर्दान्त नियति-पुरुष ?
आज से सोलह वर्ष पूर्व की बात है।
..'अचीरवती के तट पर देव-द्रुमों की छाया में, एक सुन्दर नग्न युवा बैठा है। जाने कितनी राहों की धूलि से उसका गौर सुकुमार तन धूसरित है। जाने कितने अडाबीड़ अरण्य-पथों के काटे उसकी पदत्राणहीन पगतलियों में चुभे हैं। फटी बिवाइयों से उसके पगतल लोहियाल हो गये हैं।
कल सन्ध्या में एक लम्बी यात्रा से थके-हारे आ कर, उसने इस नदीतट के देव-द्रुम वन में विश्राम लिया था। थक कर चूर था। सो जिस शिला तल पर वह अभी बैठा है, उसी पर वह लेट गया था। और उसे तुरन्त नींद आ गई थी। नदी की कल-कल जल-ध्वनि सारी रात उसके सपनों में जाने कितनी पुरातन स्मृतियाँ जगाती चली गई।
सबेरे भिनसारे ही उसकी नींद खुल गई। वह उठ बैठा। अचीरवती के शान्त बहते जलों पर, फूटते दिन की जामुनी आभा में, वह अपने सुदूर अतीत को चित्रपट की तरह खुलते देखने लगा। महुआ-वनों की फूल-गंध से मदभीनी सबेरे की अलस मंथर हवा में, जाने कितनी यादें जाग रही हैं। उसका मन सम्वेदन से बहुत करुण कातर हो आया है। वह अपना अनुप्रेक्षण करने में डूब गया :
...कितना अकेला हूँ मैं इस दुनिया में। आदि दिन से आज तक अकेला ही तो रहा । वंश, वृत्ति, माता-पिता, उद्गम, जन्म--सभी कुछ मेरा कितना विपन्न, कितना अस्तित्वहीन है। मैं एक दीन-दरिद्र अनगार, यायावर भाट का बेटा--मंख-पुत्र गोशालक । मंख भाटों का वंशज। जन्मजात भिक्षुक, भिक्षाजीवी दासों की दलित-वीर्य सन्तान ।
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