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श्रीसुन्दरी मृत्तिका हालाहला
आर्यावर्त के आकाश पर एक प्रति-तीर्थंकर बोल रहा है।...
उत्तरावर्त के इस छोर से लगा कर, पूर्वांचल के उस छोर तक उसके उद्दण्ड उच्चार गूंज रहे हैं। गंगा, यमुना, सरयू और शोण के पानी एक प्रकुद्ध युवा की आक्रोश-वाणी से विक्षुब्ध हो उठे हैं। उस गर्जना की गूंज तथागत बुद्ध और तीर्थंकर महावीर की धर्म-पर्षदाओं में भी पहुंची है। उत्तरावर्त के सारे जनपदों में-काशी, कोशल, कौशाम्बी, वैशाली, मगध, अंग, बंग तक के तमाम प्रदेशों में, एक सनसनी-सी फैल गयी है। सारे स्थापित वादों और उपदेशों की चूलें उसने हिला दी हैं। आर्यावर्त के सारे जन-मानस में उससे एक उथल-पुथल मच गई है। - उस काल के महानगरों के चौराहों पर उल्लम्ब बाहु खड़ा हो कर वह प्रति-तीर्थंकर उद्घोष करता सुनाई पड़ता है :
_ 'सुनो रे सुनो भव-जनो, तुम्हारा एकमेव परित्राता आ गया। साक्षात् औषधीश्वर आ गया। चरम औषधि-पुरुष हूँ मैं। तुम्हारे तन, मन, प्राण, इन्द्रिय और आत्मा के सारे रोगों का रामबाण इलाज केवल मेरे पास है। आज के अन्य सारे तीर्थक् उधार धर्मी हैं। वे भविष्य, परलोक, मुक्ति की झूठी आशा पर तुम्हें टाँगें रखते हैं।
_ 'मैं हूँ प्रति-तीर्थंकर! उन सारे तीर्थकों द्वारा रचे गये भ्रमों को मैं भंग करने आया हूँ। मैं तुम्हें भविष्य की आशा में नहीं भरमाता। मैं हूँ तुम्हारा वर्तमान। मैं अभी और यहाँ तुम्हारी दैविक, दैहिक, भौतिक सारी व्याधियों को अचूक मिटाने आया हूँ। ___'नत्थि पुरिस्कारे, नास्ति पुरुषकारं। नियया सव्य भावा। कोई पुरुषार्थ यहाँ सम्भव नहीं। सारे भाव, सारे अस्तित्व यहाँ पहले से ही नियत हैं। इसी से कर्म-फल नहीं। पाप-पुण्य नहीं। लोक-परलोक नहीं। मोक्ष नहीं, निर्वाण नहीं। केवल वर्तमान ही सब कुछ है। इसे छक कर उन्मुक्त भोगो। वीणा बजाओ, और मौज करो। चरम पान करो, चरम गान करो, चरम नृत्य करो, चरम पुष्पोत्सव करो, चरम संभोग करो। खाओ-पिओ और मजे उड़ाओ।
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