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________________ ११७ परलोक है, तो मैं कहूँगा–हाँ । परन्तु मुझे वैसा नहीं लगता। मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि परलोक नहीं है। औपपातिक प्राणी-देव और नारकी-हैं या नहीं, अच्छे, बुरे कर्म का फल होता है या नहीं, तथागत या अर्हन्त मृत्यु के के बाद रहता है या नहीं, इसके विषय में मेरी कोई निश्चित धारणा नहीं। चरम सत्य कैसे कथ्य हो सकता है, देवार्य ? जो जितना देख-जान रहा हूँ, उतना ही कह रहा हूँ।' 'सत्ता अनैकान्तिक है, सो वह अनन्त है, आर्य संजय । इसी से अन्ततः वह अनिर्वच ही है। धारणा से नहीं, साक्षात्कार से ही सम्यक् और पूर्ण दर्शनज्ञान सम्भव है। और सम्यक् दर्शी प्रतिबद्ध कैसे हो सकता है। जो अप्रतिबद्ध है, वही मुक्त दर्शी है, मुक्त ज्ञानी है, वही जीवन्मुक्त है। आप जो देख, जान, जी रहे हैं, वही कह रहे हैं। आप अनेकान्त दर्शी और स्याद्वादी हैं। आप सम्यक् दर्शन की विभा से मण्डित हैं, महर्षि वेलट्ठि-पुत्र! महावीर ने अपना ही एक और भी आयाम देखा। वह कृतार्थ हुआ, आर्य वेलट्ठि-पुत्र।' आचार्य संजय वेलट्ठि-पुत्र के मुख से बरबस जयघोष उच्चरित हुआ : 'त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञ महावीर जयवन्त हों!' और सारे समवसरण में अगणित कण्ठों ने इसको अनुगुंजित किया। श्री भगवान् सन्मुख सोपान से उतर कर चारों आचार्यों का अभिवन्दन झेलते हुए, समवसरण के सारे मण्डलों में परिक्रमा करते हुए, मानस्तम्भ के पार ओझल हो गये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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