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________________ ११६ क्यों? यदि इसी वक्त आपका सर कोई काट दे तो? क्या वह कटेगा नहीं, आपको दुःख नहीं होगा?' 'वह प्रहार शून्य में होगा, मेरे जीव में नहीं। मेरा जीव अवेध्य है, अछेद्य है।' 'आत्मस्थ हैं आर्य कात्यायन ! आपका आत्म अछेद्य है, लेकिन शिरच्छेद यदि अनिवार्य सामने आ जाये तो उसका क्या? इसी से कहता हूँ कि अपेक्षा से तत्त्व छेद्य है, अपेक्षा से अछेद्य है । क्या यही वस्तु-स्थिति नहीं, देवानुप्रिय ?' 'यह निर्णय तो आगे अपने अवबोधन से ही कर सकूँगा, देवार्य ।' 'सम्यक् सम्बोधि की ओर अग्रसर हैं, आर्य कात्यायन। सम्यक् द्रष्टा आर्य कात्यायन जयवन्त हों!' _आचार्य प्रक्रुध कात्यायन का मस्तक बरबस प्रभु को झुक गया। वे श्रमण प्रकोष्ठ में आसीन हुए। ० श्री भगवान् ने सम्बोधन किया : "विक्षेपवादी संजय वेलट्ठि-पुत्र की शास्ता को प्रतीक्षा थी! 'निगंठ नातपुत्त की इस महानता से मैं अपरिचित नहीं। उनके दर्शन की इच्छा थी, सो चला आया।' 'जातवेद हैं आर्य संजय, महाभाव में विचरते हैं।' 'साधुवाद, भदन्त महावीर, आपने मुझे समझा, आपने मुझे जाना।' 'आचार्य संजय परिव्राजक, जानता हूँ, आप आर्य सारिपुत्र और आर्य मोद्गल्यायन के गुरु हैं ! वे दोनों आप को छोड़ कर तथागत बोधिसत्व के शरणागत हो गये। आपकी निरन्तर अतिक्रान्ति में वे आपके साथ न चल सके। आप वेद, वेदान्त, बोधिसत्व, कैवल्य, अर्हत्-तमाम वाद और शब्द का अतिक्रमण कर गये। आपका यह निरालम्ब और मुक्त ऊर्ध्वारोहण महावीर को मुग्ध करता है।' 'लोक में केवल अनन्त पुरुष अर्हन्त महावीर ही इसका साक्ष्य दे सकते हैं। जो सुना था, वही यहाँ आ कर देखा प्रत्यक्ष। सर्वज्ञ अर्हन्त यहाँ विराजमान हैं। 'अपना ज्ञान सुनायें महर्षि संजय वेलट्ठि-पुत्र !' 'आप से वह अनजाना नहीं। फिर भी जो देखा, जाना, समझा है, वह कहता हूँ। कोई मुझ से पूछे कि क्या परलोक है, और मुझे ऐसा लगे कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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