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________________ ११५ 'आर्य कात्यायन इसी से अर्हत् को अधिक प्रिय हुए। क्योंकि जो आप्त है, वही अर्हत् है। आपके दर्शन को सुनना चाहता हूँ, महानुभाव।' ___'जो देखा, जाना, साक्षात् किया, वही कहता हूँ, आर्य महावीर ! अपने मुक्त अवबोधन से प्रत्यक्ष किया है, कि पदार्थ सात हैं : पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुख, दुःख एवं जीव। ये सात पदार्थ किसी के किये-करवाये, बनाये या बनवाये हुए नहीं हैं। वे तो वन्ध्य कूटस्थ और नगर-द्वार के स्तम्भ की तरह अचल हैं। वे न हिलते हैं, न बदलते हैं। वे एक-दूसरे को नहीं सताते। एक-दूसरे को सुख-दुःख उत्पन्न करने में असमर्थ हैं। इन्हें मारने वाला, मरवाने वाला, सुनने वाला, सुनाने वाला, जानने वाला, या वर्णन करने वाला कोई नहीं। जो कोई तीक्ष्ण शस्त्र से किसी का सिर काट डालता है, वह उसका प्राण नहीं लेता। इतना ही समझना चाहिये कि सात पदार्थों के बीच के अवकाश में शस्त्र घुस गया है।' 'आपने पदार्थ को स्वयम्भू देखा, आर्य कात्यायन। आपने सत्ता की परम स्वतंत्रता को साक्षात् किया। आप द्रष्टा हैं, आचार्य कात्यायन। सत्ता आपके ज्ञायक आत्म में प्रत्यक्ष झलक रही है। पदार्थ परस्पर के कर्ता नहीं, सम्यक् है आपका यह अवबोधन। हर पदार्थ परम स्वतंत्र है। समीचीन है आपका यह दर्शन । आप सत् के समक्ष खड़े हैं, आर्य कात्यायन !' ___'आर्य महावीर ने मेरी स्वतंत्रता को स्वीकारा, मैं कृतज्ञ हुआ अर्हत् जिनेन्द्र का।' 'लेकिन कूटस्थ है पदार्थ, तो उसमें परिवर्तन क्यों कर है, देवानुप्रिय ? पदार्थ में गति क्यों कर है? जो अभी प्रकट है, वह अगले ही क्षण लुप्त भी हो सकता है। गति है, परिणमन है, पर्याय का प्रवाह है, कि आप नैमिषारण्य से यहाँ आये न । कूटस्थ में यह क्रिया कैसे हुई ?' __ आर्य कात्यायन सोच में पड़ गये। श्री भगवान् फिर बोले : 'और वर्णन भी आपने किया ही पदार्थों का। आपका कथन स्वयम् प्रमाण है। स्थिति भी, गति भी। कूटस्थ भी, क्रियाशील भी। ध्रव भी, परिणामी भी। नहीं तो सृष्टि कैसे जारी है ? क्या यही वस्तु-स्थिति नहीं, आर्य कात्यायन ! प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या?' आचार्य कात्यायन उद्बुद्ध, अनाग्रही, ग्रहणशील दीखे। वे एक टक प्रभ की नासाग्र दृष्टि में खो रहे। कि फिर श्री भगवान् वाक्मान हुए : 'और शस्त्र यदि वास्तव में किसी को छेद नहीं सकता, प्राणघात नहीं कर सकता, तो जगत् में हिंसा-प्रतिहिंसा, घात-प्रतिघात, युद्ध और रक्तपात Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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