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केश-कम्बली, आप अभी और यहाँ मृत्यु चुनते हैं, या जीवन चुनते हैं ?...' आपका काल आपके सम्मुख खड़ा है ?' ___..और आर्य अजित ने हठात् मूर्तिमान उच्छेद, विनाश, मृत्यु को सामने खड़े देखा। पहले तो आचार्य भय से थर्रा उठे। लेकिन फिर सन्नद्ध हो साहस पूर्वक ललकार उठे :
'हट जाओ मेरे सामने से, ओ काल, ओ मायावी, ओ महावीर, तुम मुझे मार नहीं सकते !'
वह कुहेलिका विदीर्ण. हो गयी। और आचार्य-कम्बली को सुनायी पड़ा :
'सच ही तुम अन्ततः अमर हो, आचार्य अजित केश-कम्बली। कोई काल, कोई महावीर, कोई ईश्वर भी तुम्हें नहीं मार सकता। आर्य अजित केशकम्बली जयवन्त हों?'
और आर्य अजित श्रमणों के प्रकोष्ठ में उपविष्ट होते दिखायी पड़े।
भगवद्पाद गौतम ने निवेदन किया :
'आचार्य प्रक्रुध कात्यायन प्रभु के सम्मुख उपस्थित हैं । ये अपने को अन्योन्यवादी कहते हैं। वर्तमान का कोई स्थापित दर्शन इन्हें सन्तुष्ट न कर सका। अपनी मुक्ति का मार्ग इन्होंने स्वयम् खोज निकाला है। पर, मुक्ति को भी इन्होंने अस्वीकार कर दिया है। सारी प्रचलित धारणाओं को नकार कर ये अपने स्वतंत्र तत्त्व-दर्शन को उपलब्ध हुए हैं। कुकुद्ध वृक्ष के नीचे इनका जन्म हुआ है। इसी से प्रक्रुध कहलाये। ऋषि पिप्पलाद के समकालीन ये पुरातन पुरुष नैमिषारण्य के विजन में एकाकी विचरते हैं। आचार्य कात्यायन शीतल जल का उपयोग नहीं करते। ऊष्ण जल को ही ग्राह्य मानते हैं।'
श्री भगवान् सस्मित उन्हें निहारते हुए बोले :
'उबुद्ध हैं आचार्य कात्यायन। अपने लिये स्वयम् सोचते हैं। किसी के सोच का सहारा इन्होंने न लिया। अवधानी और अप्रमत्त विचरते हैं, ये महाप्राण पुरुष । स्वतंत्र चैतन्य से चालित हैं। मुक्ति पर भी ये नहीं रुके। तो मुक्ति इनके पीछे आयेगी। अर्हत् जिनेन्द्र के दर्पण हैं ये जातवेद महापुरुष । अर्हत् इन्हें पा कर आप्यायित हुए।'
'साधवाद भदन्त महावीर, आपने मेरे स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारा। पर जानें देवार्य, मैं आपका अनुगामी नहीं, प्रतिगामी हूँ। मैं विशुद्ध स्वानुभव में चर्या करता हूँ। मैं अर्हत्कामी नहीं, नितान्त आप्तकामी हूँ।'
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