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________________ ११३ दान ले कर यजमान से स्वर्ग-नरक, जन्मान्तर, आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष का सौदा करते हैं। आस्तिकवाद मृषा बकवास है, झूठ है । शरीर भेद होने पर विद्वान् और मूर्ख, ज्ञानी और अज्ञानी का समान रूप से उच्छेद हो जाता है । वे सब निर्मूल नष्ट हो जाते हैं । उच्छेद, विनाश, मृत्यु -- यही सब का अन्त है । यही एक मात्र अन्तिम सत्य है ।' 'तो अभी और यहाँ, तुम मरना चाहोगे, देवानुप्रिय ?' 'मेरे चाहने का क्या प्रश्न है। मौत आ जायेगी तो मर ही जाना पड़ेगा ।' 'मरना तुम चाहते नहीं, पर मर जाना पड़ेगा । यही न ? मान लो अभी इसी वक़्त कोई तलवार से तुम्हारा वध करने को उद्यत हो जाये तो ? बचना नहीं चाहोगे ? प्रतिकार नहीं करोगे, आयुष्यमान ।' आचार्य अजित अनायास उत्तेजित हो आये : 'आख़िर क्यों कोई मेरा वध करेगा ? मेरा कोई दोष हो तब न ?' 'दोष - अदोष तो तुम मानते ही नहीं, आचार्य ! प्रकट है कि तुम बचना चाहते हो, जीना चाहते हो !' 'जीना कौन न चाहेगा ?' 'तो तुम मरना नहीं चाहते, आचार्य अजित ?' 'मेरे चाहने से क्या होता है, मैं मर जाने को बाध्य हूँ ।' 'तो बाध्यता से मरण को स्वीकारते हो । स्वेच्छा से नहीं । अपना वश चले तो जीना चाहते हो ? यही न ?' 'जीना कौन न चाहेगा ? ' ' हो सके तो अमर होना चाहते हो ?' ' हो सके तो क्यों नहीं ?' 'अमरत्व की चाह है, तो अमरता कहीं है ही । उसकी खोज भी स्वाभाविक है । जो कहीं है, उसी को तो खोजा जा सकता है ! ' आचार्य कम्बली अवाक् सुनते रहे। उनके हृदय की घुण्डी खुलती चली गई । श्री भगवान् फिर बोले : 'मैं अमर होना चाहता हूँ, तो अमरत्व एक सम्भावना है । मुझ में कुछ है, जो अमर है । अन्ततः अस्ति न हो, तो नास्ति से बचने की चाह क्यों ? अन्ततः अमरत्व न हो, तो मृत्यु से बचने की चाह क्यों ? और यदि मैं अन्तत: अस्ति हूँ, अमर हूँ, तो आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, जन्मान्तर, पुण्य-पाप, इष्ट-अनिष्ट, सदाचार- दुराचार उसकी अनिवार्य निष्पत्तियाँ हैं । आचार्य अजित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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