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________________ 'मैं उनका मूल ही उखाड़ दूंगा। तो मुझे उखाड़ने को वे बचेंगे कहाँ ?' 'तो आपका मूल कहीं है, जिसे उखाड़ा नहीं जा सकता? है न?' 'अन्ततः यहाँ सब निर्मूल हैं, निगंठनातपुत्त । सब का अन्त हो जाता है। विनाश, नास्ति। अस्तित्व मात्र की यही अन्तिम नियति है। निर्मूल नाश, यही अन्तिम सत्य है। सारे वेद-वेदान्त, विचार-आचार, कर्म-काण्ड व्यर्थ हैं, निरा भ्रामक वितण्डावाद है। विनाश और मृत्यु के भय में से उपजे हैं ये सारे दर्शन और विधि-विधान । मैं इस पलायन की ओट को ध्वस्त करने आया हूँ, मैं उच्छेदवादी तीर्थंकर अजित केश-कम्बली।' ___'आस्तिक दर्शन का उच्छेद करने को आपने नास्तिक दर्शन तो रचा ही, आर्य अजित । अन्ततः आप तो बचे ही। आप हैं पहले, कि आपने उच्छेद का दर्शन उच्चरित किया। जब अन्ततः नास्ति ही है, नाश ही है, तो यह उच्छेद का आग्रह भी क्यों? यह प्रतिवाद का मोह भी क्यों? और यह मैं -उच्छेदवादी तीर्थंकर अजित केश-कम्बली--का अहंकार भी क्यों?' आचार्य कम्बली अपनी जनेऊ तानते हए निर्वाक ताकते रह गये। तो श्री भगवान् ने उन्हें सहारा दिया : 'आचार्य कम्बली के महान् दर्शन को समग्र सुनना चाहता हूँ। शायद मुझे कुछ नया प्रकाश मिल जाये !' तो मेरे दर्शन को सुनें, आर्य महावीर। जब अन्ततः नाश और मृत्यु में ही सब को समाप्त हो जाना है, तो आचार-विचार सब निःसार हैं। दान, यज्ञ, होम, विधि-विधान, कर्म-काण्ड सब व्यर्थ हैं। श्रेष्ठ या कनिष्ठ कर्मों का कोई फल और परिणाम नहीं होता। इहलोक, परलोक, माता-पिता, अथवा औपपातिक प्राणी देव-नारकी-नहीं हैं। इहलोक-परलोक का अचूक ज्ञानी यहाँ कोई नहीं। श्रमण हो कि ब्राह्मण हो, कोई यहाँ सच्चा सदाचारी नहीं। आचार-विचार मात्र पाखण्ड है, पलायन है, मृत्यु और विनाश से मुंह चुराने की युक्तियाँ हैं।' ___आप वेदना में से बोल रहे हैं, आचार्य अजित । आपके इस यथार्थवाद को सम्वेदित कर रहा हूँ। निःशेष बोलें, आचार्य कम्बली।' _ 'मनुष्य चार भूतों का बना हुआ है। जब वह मरता है, तब उसके अन्दर की पृथ्वी-धातु पृथ्वी में, आपो-धातु जल में, तेजो-धातु तेज में, और वायु-धातु बायु में जा मिलती है। इन्द्रियाँ आकाश में चली जाती हैं। मृत व्यक्ति को चार पुरुष अर्थी पर उठा कर फूंक आते हैं। श्मशान में उसके गुणअवगुण की चर्चा होती है। उसे दी जाने वाली आहुतियाँ भस्म हो जाती हैं। दान का वितण्डा मूखों और परोपजीवी ब्राह्मणों का व्यवसाय मात्र है। वे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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