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कोई मार-पीट करे, काटे-कटवाये, कष्ट दे या दिलाये, तो भी उसमें कोई पाप नहीं। गंगा के उत्तरी किनारे पर जा कर यदि कोई अनेक दान करे या करवाये, यज्ञ करे या करवाये, तो उसमें कोई पुण्य भी नहीं मिलता। दान, धर्म या सत्य-भाषण से कोई पुण्य लाभ नहीं कर सकता। आचारविचार, पाप-पुण्य, लोक-परलोक, सत्य-असत्य, हिंसा-अहिंसा-यह सब मरीचिका है, कपोल-कल्पना है, ढकोसला है, पाखण्ड है।' ___ तो क्या तुमने यह सब कर देखा, वत्स ? करो और परिणाम जानो। अनुभव वही प्रमाण है, जो देखने, जानने और करने की संयुक्त फल-श्रुति हो। उक्त सारे आचारों को पाप-पुण्य से परे परानैतिक जाना तुमने, कहा तुमने, पर ये सारे आचार तुमने किये नहीं। अनुभव बिना मूल्य-निर्णय कैसा?... क्या तुम सच ही इन सारे आचारों से निष्क्रान्त हो गये? क्या तुम सच ही स्वधर्म में स्थित, ज्ञाता-द्रष्टा मात्र रह गये ?'
पूर्ण काश्यप निरुत्तर केवल सुनते रहे। कि फिर सुनाई पड़ा :
'तुमने लज्जा और उसके निवारक वस्त्र को अभी-अभी पाप का मूल कहा, आर्य काश्यप। और उसे त्यागने रूप आचरण भी तुमने किया। तो तुम पाप-पुण्य से परे कहाँ ? और तुम घर छोड़ कर निकल पड़े। संसार से बाहर खड़े हो गये। तो विचार और आचार दोनों किया तुमने, आचार्य काश्यप। तुम स्वयम् ही अपने स्वयम् के विरोधी और प्रतिवादी हो गये। और संन्यस्त होकर अपने साथ सम्वादी भी हो गये !'
अपने वाद के अन्तविरोध को सामने प्रत्यक्ष देख, पूर्ण काश्यप स्तम्भित, समाधीत हो रहे। वे अनिर्वच का साक्षात्कार कर निर्वचन हो गये।
'तू प्रतिबुद्ध हुआ, आयुष्यमान् । तू पूर्ण सम्वादी हुआ इस क्षण, स्वयम् अपने साथ, महावीर के साथ, सारे जगत् के साथ। आचार्य पूर्ण काश्यप जयवन्त हों !' __ और तीर्थक् पूर्ण काश्यप निर्विकल्प, निस्तर्क, शान्त होकर श्रमणों के प्रकोष्ठ में जा उपविष्ट हुए।
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कृष्ण-गिरि-सा काला विशाल डील-डौल। बड़ी-बड़ी तेजस्वी पानीदार आँखें। कसौटी-सी कज्जल देह पर चन्द्र-किरण की तरह चमकता स्वच्छ यज्ञोपवीत जनेऊ। और कटि पर मनुष्य के केशों से बना कम्बल धारण किये हुए। आचार्य अजित केश-कम्बली ऊर्ध्व-बाहु सामने आये। कि गन्धकुटी के शीर्ष-कमल से सुनाई पड़ा :
'उच्छेदवादी आचार्य अजित केश-कम्बली !'
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