SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०९ अपनी सम्भावना के स्वतंत्र तर्क से गतिमान है। हम उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते । हम बाहर से उसे मनचाहा तोड़ और मोड़ नहीं सकते। लेकिन अपने कर्त्ता हम आप हैं, निश्चय । सो हम अपने में पहल करके, अपने को बदल सकते हैं । और जब हम स्वयम् बदल कर अपना अभीष्ट सम्वाद और शांति पा लेते हैं, तो जगत् की हर सत्ता मूलतः हमें अपने साथ सम्वादी प्रतीत होने लगती है। यह निश्चय प्रतीति ही स्वयम् प्रक्रिया होकर जगत् में भी, अभी और यहाँ अभीष्ट अतिक्रान्ति अनायास घटित करती है । हम अन्यों की स्वतंत्रता को स्वीकारते हैं, तो वे हमारी स्वतंत्रता को स्वीकारते हैं। इस सम्वादिता में से ही जगत् स्वतः हमारा मनोवांछित होता चला जाता है । आर्य काश्यप ने पहल की, प्रतिवाद किया, प्रवाह से निकल कर स्वतंत्र हो गये। अन्यों को स्वतः सक्रिय रहने दिया : आप स्वतः सक्रिय रहे । तो वे कृतार्थ हो गये । महावीर उनके साथ सम्वादी हो गया ।' 'लेकिन मैं तो अक्रिय हुआ, भदन्त, सक्रिय कहाँ हुआ ? प्रवाह से निकल आया । बस ।' 'कौन है, वह जिसने जगत् का यह सत्य देखा, जाना और उससे बाहर निकल आया ? बाहर निकलने का निर्णय किसने किया? पहल किसने की ? लज्जा के मूलगत पाप को किसने देखा, किसने जाना ? किसने वस्त्र को उस पाप का प्रतीक जान कर त्याग दिया, और कौन यह स्वभाव रूप नग्न चर्या करने लगा ? कौन यहाँ वाद-प्रतिवाद करने आया ? ' 'मैं आर्य ! मैं पूर्ण काश्यप !' ' इस मैं की पहचान और स्वीकृति ही अपने आप में एक क्रिया है । अक्रिय को तुमने देखा, जाना, जिया, यह स्वयम् ही एक क्रिया है । अन्ततः पहल और निर्णय तुम्हारा है कहीं । वह स्वतः उजागर है। स्वयम् सिद्ध है । एकान्त क्रिया भी नहीं, एकान्त अक्रिया भी नहीं । यथाक्रम, यथास्थान, अक्रिया भी, क्रिया भी । अपेक्षा विशेष से ही सत्य और असत्य है । निरपेक्ष सत्य या निरपेक्ष असत्य कुछ भी नहीं । केवल अनुभव प्रमाण है, कथन नहीं ।' 'तो मेरा अनुभव जो मुझे बताता है, उसे सुनें आर्य महावीर । अगर कोई कुछ करे या कराये, काटे या कटाये, कष्ट दे या दिलाये, शोक करे या कराये, किसी को कुछ दुःख हो या कोई दे, डर लगे या लगाये, प्राणियों को मार डाले, चोरी करे, घर में सेंध लगाये, डाका डाले, या किसी के मकान पर धावा बोल दे, बटमारी करे, परदारा गमन करे, या असत्य बोले, तो भी उसे पाप नहीं लगता । तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के पशुओं के मांस का बड़ा ढेर लगा दे, तो भी उसमें बिलकुल पाप नहीं है, कोई दोष नहीं है। गंगा के दक्षिणी किनारे पर जा कर यदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy