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'साधुवाद आर्य महावीर, मैं आप से वाद करने आया हूँ। मैं आपका प्रतिवाद करने आया हूँ।'
'युवा काश्यप प्रतिवाद करें, यह स्वाभाविक है, उचित है, अभीष्ट है। वाद, प्रतिवाद, सम्वाद-यही तो सत्ता, सृष्टि और इतिहास का अटल तर्क है, अनिवार्य और अनवरत क्रम है। यह सारा विश्व क्रम-बद्ध पर्यायों का एक प्रवाह है। इसमें प्रतिवाद तो यथास्थान सतत जारी है। उत्पाद, व्यय, ध्रुव : वाद, प्रतिवाद, सम्वाद : यह संयुति ही सत्ता का स्वभाव है। यही मौलिक वस्तु-स्थिति है। आचार्य काश्यप इसके अनुगत हैं, तो अर्हत् आप्यायित हुए।'
_ 'निगण्ठनातपुत्त सुनें, मैंने वेद, वेदान्त, सारे परम्परागत धर्म, दर्शन और वादों की निष्फलता खुली आँखों देखी। वे जीवन में कहीं प्रतिफलित न दीखे । वे केवल वाग्विलास लगे। तो प्रत्यय हुआ कि यह सारा जगत्-प्रवाह स्वतः चालित है, इसमें मनुष्य की क्रिया को अवकाश नहीं। सो मैं अक्रियावादी हो गया। आर्य महावीर क्रियावादी हैं। तो मैं उनका प्रतिवादी हूँ।'
'महावीर कोई वादी नहीं, वह केवल साक्षात्कारी है, आर्य काश्यप । सत्ता जैसी सामने आ रही है, उसे वह यथार्थ वैसी ही तद्रूप देखता है, जानता है, जीता है, कहता है। वह उस पर अपना कोई वितर्क या विचार नहीं थोपता। दृश्य पदार्थ स्वतः सक्रिय है : द्रष्टा आत्म भी स्वतः सक्रिय है। दोनों ही कूटस्थ नहीं, गतिमान हैं, प्रवाही हैं। आर्य काश्यप ने स्वयम् इस जगत् को प्रवाह कहा। तो गति और क्रिया को स्वीकारा ही आपने। काश्यप चल कर मुझ से वाद करने आये हैं, क्या यह उनका कर्तृत्व नहीं ? क्या यह क्रिया और गति का प्रमाण नहीं ?', ___'लेकिन मैं स्वयम् कुछ कर नहीं सकता, कर नहीं रहा। बस, अपने आप यह सब हो रहा है। यदि कर्तृत्व मेरा होता, तो यह जगत् मेरा मन चाहा होता। तब किसी स्वामी का द्वारपाल होने की विवशता मेरी न होती।' ___'लेकिन वह होने को तुम विवश न किये जा सके, आर्य काश्यप। तुमने प्रतिकार किया। तुम उस स्वामी की आज्ञा को ठुकरा आये। तुम संसार और वस्त्र तक से निष्क्रान्त हो गये। इस अनिष्ट संसार-प्रवाह से अलग खड़े हो जाने का पुरुषार्थ तुमने किया !'
'बेशक , ठुकरा दिया। निष्क्रान्त हुआ। नग्न हो गया। अलग खड़ा हो गया। पर क्या इस प्रवाह को मनचाहा मोड़ सका?'
'वह स्वभाव नहीं, आर्य काश्यप । हर वस्तु और व्यक्ति यहाँ स्व-सक्रिय है, अपने ही में स्वतंत्र परिणमन कर रहे हैं। हर सत्ता यहाँ अपने उपादान,
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