SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०७ 'प्रभु ने मुझे ठीक अपनी ही भूमि पर स्वीकार लिया । प्रभु ने वेद और वेदान्त का खण्डन नहीं, मण्डन किया । प्रभु ने विरोधी का विरोध नहीं, समाहार और समाधान किया । फिर भी मैंने जान-बूझ कर ही यह प्रश्न उठाया है, भन्ते, ताकि शास्ता के उत्तर को मैं अपने ही उदाहरण से प्रमाणित कर सकूँ ।' ‘आगत आचार्य देखें, गौतम स्वयम् प्रमाण है ।' 'ये महानुभाव आचार्य अपने को जिन और श्रमण कहते हैं, भगवन् । ये भी अपने को तीर्थंकर कहते हैं, भन्ते ।' 'ये उत्कट तपस्वी हैं और असत्य से जूझ रहे हैं, तो श्रमण हैं ही। ये मिथ्या का पाश तोड़ कर मुक्त, निर्भय और विजयी हुए हैं, तो उस अपेक्षा से जिन हैं ही। ये नूतन युग चेतना के संवाहक हैं, तो उस अपेक्षा से तीर्थंकर हैं ही। अर्हत् विद्वेषी नहीं, समावेशी होते हैं, गौतम । जिनेश्वर इन आचार्यों का निवारण नहीं, वरण करते हैं । यही मौलिक सत्ता का स्वभाव है, गौतम । जिनेन्द्र महावीर, उसी का साक्ष्य देने को यहाँ प्रस्तुत है ।' और श्री भगवान् तद्रूप, समाहित, चुप हो रहे । चारों आचार्य उद्ग्रीव दिखाई पड़े। वे वाद करने को व्यग्र दीखे । महावीर का मौन उन्हें बेक़ाबू उत्तेजित कर रहा था । सो आर्य गौतम ने उस मौन को तोड़ कर, बात को आगे बढ़ाया : 1 1 'आचार्य पूर्ण काश्यप प्रभु के सम्मुख प्रस्तुत हैं । ये काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण हैं । ये नग्न चर्या करते हैं । इनके अस्सी हज़ार अनुयायी हैं । जब गृहस्थाश्रम में थे तो अपने स्वामी द्वारा द्वारपाल का काम सौंपे जाने पर, इन्होंने गहरे अपमान का अनुभव किया। सो ये विरक्त हो गये, और निष्क्रान्त होकर जंगल चले गये । मार्ग में तस्करों ने इनके वस्त्र छीन लिये, तो वस्त्र के परिग्रह से भी ये विरक्त हो गये । और तभी से नग्न विचरने लगे। एक बार किसी ग्राम में इन्हें नग्न देख कर, लोगों ने इन्हें वस्त्रदान करना चाहा । तो ये बोले कि : ‘वस्त्र लाज ढँकने को है, और लज्जा के मूल में पाप है । मैं पाप से परे हूँ, सो मेरे लिये वस्त्र अनावश्यक है ।' इनकी इस असंग वृत्ति को देख कर हज़ारों लोग इनके अनुयायी हो गये । अनुभव से परिपूर्ण होने के कारण, इनका नाम ही पूर्ण काश्यप हो गया है ।' I वीतराग मुस्कान से प्रफुल्लित प्रभु बोले : 'काश्यप महावीर काश्यप पूर्ण का स्वागत करता है । निष्क्रान्त और नग्न आर्य काश्यप महावीर को अपने ही प्रतिरूप लगते हैं । पाप से परे होकर, ये केवल स्वयम् आप हो गये हैं । वरेण्य हैं आर्य पूर्ण काश्यप ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy