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अनेकान्त का शीशमहल
श्री भगवान् इस बीच, प्रजाओं की पुकार पर, काशी-कोशल के अनेक ग्रामों और नगरों में विहार करते रहे। अब वे फिर लौट कर श्रावस्ती के “ज्ञानोदय चैत्य' में समवसरित हैं।
प्रातःकाल की धर्म-पर्षदा में गहन गर्भवान ओंकार ध्वनि गूंज रही है। दशांग धूप की पावन मलय-कर्पूर गन्ध से सारा वातावरण प्रसादित है। सहसा ही भग वदपाद इन्द्रभूति गौतम ने निवेदन किया :
_ 'भन्ते जगदीश्वर, सारे समकालीन जगत् में आज एक तीव्र असन्तोष की लहर दौड़ रही है। सारे संसार की नयी पीढ़ियाँ एक प्रचण्ड असहमति और अराजकता से विक्षुब्ध हैं। तमाम तरुणाई एक विप्लव के ज्वालागिरि की तरह उबल रही है। समकालीन प्रबुद्धों ने सारी पुरातन मर्यादाओं और प्रस्थापनाओं को नकार दिया है। सारे स्थापित मूल्य-मानों को तोड़ दिया है। सारी परम्पराओं को ध्वस्त करके वे नये मूल्यमान, नयी मर्यादा, नयी प्रस्थापना के ध्रुव की खोज में जूझ रहे हैं। यूनान में हिराक्लिटस और पायथागोरस, महाचीन में लाओत्से, मेन्शियस और कन्फ्यूसियस, फिलिस्तीन में येमियाह और इझेकियेल, तथा पारस्य देश में जथूस्त्र इसी विप्लव के चूड़ान्त पर खड़े बोल रहे हैं। सर्वज्ञ महावीर के पृथ्वी तल पर विद्यमान होते, मनुष्य ऐसे असन्तोष और अराजकता से क्यों ग्रस्त हो गया है, भगवन् ?'
'महावीर स्वयम् उसी असन्तोष में से जन्मा है, गौतम ! उसी की चुनौती पर, उसका उत्तर देने को ही वह पृथ्वी पर आया है। और क्या तुम भी उसी असन्तोष की सन्तान नहीं ? क्या तुम भी उसी उद्विग्नता से विवश होकर मेरे पास नहीं आये ?'
'अपने पूर्वाश्रम को लौट कर साक्षात् कर रहा हूँ, भगवन् ।'
'इस मौलिक असन्तोष के संयुक्त और एकमेव उत्तर का ही दूसरा नाम महावीर है, देवानुप्रिय।'
'समकालीन संसार का अहोभाग्य है, नाथ, कि उसकी अन्तिम वेदना और अन्तिम प्रश्न का उत्तर देने को, सर्वज्ञ अर्हन्त महावीर हमारे बीच उपस्थित हैं।'
श्रीभगवान् मौन हो रहे। उनकी पारान्तर वेधी दृष्टि से तमाम श्रोता समुदाय अनुविद्ध होता रहा। तभी आर्य गौतम ने फिर निवेदन किया :
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