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________________ १०३ 'तो ले देख, मैं तुझे दिखाता हूँ, देवानुप्रिय । तू लौटते ही अपने राजद्वार पर बन्दी होगा। तुझे निर्वासित कर विजन कान्तार में खदेड़ दिया जायेगा। तू गिरता-पड़ता, लहू-लुहान, मृतप्राय भटकता हुआ चम्पा पहुँचेगा । अजातशत्रु के पास शरण खोजने । "बड़ी भोर, चम्पा - दुर्ग के बन्द द्वार की देहरी पर, मैं एक सड़े हुए राजा के दुर्गन्धित शव का ढेर देख रहा हूँ। वह तू नहीं, वत्स, वह केवल तेरा शरीर, तेरी एक पर्याय । अपनी मौत को सम्मुख कर देख राजा, उसे प्रत्यक्ष देख, उसका साक्षी हो जा । और तू अमरत्व में उन्नीत हो जायेगा प्रसेनजित् की चेतना शून्य में डूबती चली गयी। एक वेधक सन्नाटे में भयंकर भविष्य उजागर हो रहा है । 'सावधान विडूडभ ! शाक्यों के दासी - पुत्र औरस, तू शाक्यों से अपने अपमान का बदला लेने सैन्य सज्ज होकर कपिलवस्तु जायेगा । अपनी प्रतिशोधी तलवार के ख़ ूनी उन्माद से, तू शाक्यों का निर्मूल वंशनाश कर देगा । चुन-चुन कर एक-एक दुधमुँहे बच्चे तक को मार देगा । केवल वे बच जायेंगे, जो मुख में तृण और जलवेत लेकर तेरे आगे घुटने टेक देंगे। एक दिन तेरे पगधारण से अप वन हो गये अपने सभागार को, तेरे मातुल शाक्यों ने दूध से धुलवा कर पवित्र किया था। अब तू ७७००० शाक्यों के प्रतिशोधित रक्त से अपना काष्ठासन धुलवायेगा ! और यों शाक्य गणतंत्र का अन्त हो जायेगा ! 'तो मेरी विजय होगी, देवार्य ? मैं इन राजवंशियों की मुण्ड - माला धारण कर इनकी धरतियों पर राज्य करूँगा, भगवन् ? ' 'तू नहीं, तेरी आगामी पीढ़ियाँ । आज के दास ही कल पृथ्वी के स्वामी होंगे ! ' 'लेकिन मैं तो आज ही विजयी हो गया, भन्ते । मैं तो आज ही स्वामी हो गया, देवार्य ।' 'प्रतिशोध की विजय, विजय नहीं, अन्तिम पराजय है । तथागत बुद्ध के वंश का विच्छेद करके कौन विजयी हो सकता है । तथागत का वंश - विनाश, तेरा आत्मनाश सिद्ध होगा । लौटते हुए तू और तेरा सैन्य, इस सामने बह रही अचीरवती की बाढ़ में डूब जायेगा । सावधान विडूडभ, सावधान प्रसेनजित् ! हिंसा - प्रतिहिंसा के इस दुश्चक्री न टक का अन्त खुली आँखों देखो, देवानुप्रियो । इतिहास इसके आगे न जा पाया अभी तक ! ' विडूडभ और प्रसेनजित् आमने-सामने खड़े, एक-दूसरे में अपनी मौत को साक्षात् कर रहे हैं । एक कालातीत शान्ति में सभी कुछ विश्रब्ध हो गया है । तभी भगवद्पाद आर्य गौतम का गंभीर स्वर सुनायी पड़ा : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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