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१०१ 'सो तो आप ही जानें, अन्तर्यामिन् !' 'तेरा निस्तार निकट है, सौम्य !' 'मैं निर्वाण पा जाऊंगा, भन्ते, इसी जन्म में ?'
'इस जन्म में नहीं। कोड़ा-कोड़ी सागरों तक नरकों में प्रवास करने के बाद।'
'नरक ? मैं नरक में पड़गा, भन्ते?'
'अपना नरक तू आप ही है। अपना स्वर्ग तू आप ही है। अपने ही से तू कैसे बच सकता है। लेकिन तू भव्यात्मा है, काल-लब्धि आने पर तर जायेगा तू ।' __'लेकिन भगवान् तथागत बुद्ध तो कहते हैं कि : तू चतुर्थ बुद्ध होगा। सारिपुत्त को अनागत बुद्ध का उपदेश करते हुए, स्वयम् श्रीभगवान् ने ऐसा कहा था। क्या यह असत्य है, भगवन् ?'
'तथागत असत्य नहीं कहते। वे परावाक् हैं । वे आप्तवाक् हैं। उनका वचन प्रमाण है। लेकिन कर्मभोग और काल-लब्धि अनिवार्य है।'
'वे भगवान् मेरे गुरु हैं। मैं उनकी शरण में हैं। क्या मुझे आपका श्रावक होना पड़ेगा, भगवन् ?'
'शास्ता अनाग्रही हैं। वे आग्रह नहीं करते । अहासुहं, देवाणुप्पिया, मा पडिबन्ध करेह ! जिसमें तुझे सुख लगे, वही कर, देवानुप्रिय । कोई प्रतिबन्ध नहीं। जो यहाँ है, वही वहाँ है। तू सुगत है, वत्स, तू मार्ग पर है। अपने स्वधर्म में निद्व विचरण कर।'
'मेरे इस जीवन का और इसके बाद का भविष्य क्या है, देवार्य ?'
'वह तू अपने मंत्रियों और सेनापतियों से पूछ। अपने सत्ता-लोलुप युद्धों के निघृण रक्तपात से पूछ। अपने प्रतिस्पर्धी राजाओं और राज्यों से पूछ। कलिंगसेना के बिछुड़े प्रियतम उदयन से पूछ। अपहरिता कुमारियों और नारियों के, ख न के बूंटों और आँसुओं से पूछ। अपने रासायनिक आचार्यों के लोहवेध और वाजीकरण से पूछ। अपने तमाम बलात्कृत अन्तःपुरों की सहस्रों रानियों और रखैलों से पूछ । और अपने युवराज विडूडभ से पूछ । यही है तेरा भविष्य, राजन् ।'
विडूडभ का नाम सुनते ही राजा सर से पैर तक काँप उठा। उसकी हथेलियों और पगतलियों में पसीने आ गये।
_ 'इस विडूडभ का सामना कर, प्रसेनजित । तुम्हारी उपभोक्ता सभ्यता का यह आखेट, तुम सब का आखेटक हो कर उठा है। तुम भद्रवर्गीय अभिजातों
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