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________________ १०० एक कृत्रिम नम्रता के स्वर में बोला अनाथ पिण्डक : 'आप तो अपार ज्ञान बोल गये, भगवन् । मेरी तो बुद्धि ही गुम हो मुझे कुछ भी समझ न आया। हमें आज्ञा दें भगवन्, हम आपका क्या प्रिय करें ?' गयी ! 'तुम अपनी समस्त सम्पत्ति का मिथ्या स्वामित्व महावीर को अर्पित कर दो। और वह उसे मानव मात्र, प्राणि मात्र की बना देगा, जो सब उसके समान अधिकारी हैं । यहाँ के कण-कण पर, जीव मात्र और जन मात्र का सम्पूर्ण और जन्मसिद्ध अधिकार है ! ' खींसें निपोर कर दीन भाव से दोनों श्रेष्ठी एक स्वर में बोले : 'भन्ते त्रिलोकीनाथ, ऐसी सामर्थ्य हम में कहाँ ?' 'तो अपने आगामी युग-तीर्थ में महावीर अपनी सामर्थ्य से, तुम्हारे स्वामित्व मात्र को सदा के लिये समाप्त कर देगा । इतिहास में से हिंसा के इस दुश्चक्र को वह सर्वकाल के लिये पोंछ देगा । आने वाली शताब्दियाँ इसे प्रमाणित करेंगी । अहिंसक और अपरिग्रही महावीर का जन्म पृथ्वी पर इसी लिये हुआ है । इसी अर्थ में तीर्थंकर महावीर विशिष्ट, अप्रतिम और अनन्य माना जायेगा ।' उपस्थित लोक मात्र एक विराट सामुदायिक समाधि में विश्रब्ध हो गया । एक अबूझ, अचूक साक्षात्कार और प्रत्यय वैश्विक चेतना में बीज मंत्र की तरह गहरे से गहरे उतरता चला गया । आगामी देश-काल की अनन्त सम्भावनाओं के पटल अन्तरिक्ष में उघड़ते दिखायी पड़े। एक अनिर्वार सम्बोधि में सारे सम्भाव्य प्रश्न, तर्क, वितर्क उठने से पूर्व ही निर्वाण पा गये । 'सावधान, प्रसेनजित् ! ' 'सम्मुख हूँ, भन्ते ! ' 'लेकिन अभी भी उन्मुख नहीं है तू ।' 'प्रभु का क्या प्रिय करूँ ?' 'अपना ही प्रिय कर, वत्स । इस दर्पण में अपने ही अनेक विकृत चेहरे देख । उपभोक्ता राजा, उपभोक्ता श्रेष्ठी, उपभोक्ता अभिजात, एक ही बात । तुम सब परोपजीवी हो । प्रति पल पर के घात पर तुम्हारा अस्तित्व टिका है । तूने राजसूय यज्ञ में हजारों निर्दोष पशुओं का हवन कर दिया। क्या तू चक्रवर्ती हो सका ? ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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