SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'लेकिन तथागत बुद्ध ने तो हमारा दान स्वीकारा, भन्ते। आगार विहार स्वीकारे । क्या वे सम्यक् सम्बुद्ध अर्हन्त नहीं, भगवन् ?' श्री भगवान् मौन सस्मित, दूरियों में आरपार देखते रहे। श्रेष्ठियों ने फिर अपना प्रश्न दुहराया : 'क्या तथागत बुद्ध सम्यक् सम्बुद्ध नहीं, भन्ते ? अर्हन्त जिनेश्वर हमारा समाधान करें।' 'तथागत बुद्ध निश्चय ही सम्यक् सम्बुद्ध अर्हन्त हैं। तथागत अप्रतिम हैं। तथागत अनन्य हैं । तथागत एकमेव हैं। प्रत्येक अर्हन्त अप्रतिम, अनन्य, एकमेव होता है। प्रत्येक अर्हन्त विलक्षण होता है। वे परस्पर तुलनीय नहीं। वे अपने-अपने स्व-धर्म और स्व-भाव में स्वतंत्र विचरते हैं। प्रत्येक का मार्ग एक कुंवारे जंगल को भेद कर गया है। प्रत्येक का सत्य-साक्षात्कार विशिष्ट होता है। तदनुसार चर्या भी विशिष्ट होती है। लेकिन उन सब का गन्तव्य है, वही एक परम अभेद महासत्ता। उसमें वे सब तद्रूप एकाकार होते हैं। तथागत बुद्ध निश्चय ही सम्यक् सम्बुद्ध अर्हन्त हैं। वे निश्चय ही मारजयी और मृत्युंजयी हैं !' ___ सारा ही उपस्थित श्रोता-मण्डल, एक गहरे समाधान की शान्ति और निश्चिति में विश्रब्ध हो गया। इसके आगे शब्द की गति नहीं थी। कि हठात् मण्डलाकार गूंजती ओंकार-ध्वनि में से गभीर स्वर सुनाई पड़ा : ___ 'सृष्टि की सम्पदा का दान करने वाले तुम कौन होते हो, श्रेष्ठियो, उसका स्वामित्व तुम्हें किसने दिया ?' फिर पकड़े जा कर श्रेष्ठी काँप-काँप आये। किसी तरह साहस बटोर कर सुदत्त अनाथ पिण्डक उत्तर देने को विवश हुआ : 'हमने अपने पुरुषार्थ और परिश्रम से उसे अर्जित किया है, भन्ते।' 'तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा पुरुषार्थ ? तो उन करोड़ों कृषकों के परिश्रम और पुरुषार्थ का अर्जन क्या, जो शीत-पाला, लू के ऑकोरे, वर्षा-तूफ़ान के थपेड़े सह कर कृषि-कर्म करते हैं, और तुम्हारे व्यापारिक भाण्डारों को अन्नखाद्य से भर देते हैं ? उन श्रमिकों का अर्जन क्या, जो प्राण की बाज़ी लगा कर पातालगामी खदानों में उतर जाते हैं, अथाह समुद्रों के तलों में गोते लगाते हैं ? और इस तरह तुम्हारी निधियों को सुवर्ण-रौप्य और अमूल्य रत्नमुक्ता से भर देते हैं। जो हिंस्र प्राणियों से भरे जंगलों में घुस कर, तुम्हारे महलों और क़िलों के निर्माण के लिये श्रेष्ठ काष्ठ, पाषाण और फ़ौलाद उपलब्ध करते हैं, और तुम्हारे सुखद गद्दों और उपानहों के लिये पशु-चर्म प्राप्त . . ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy