________________
'ताकि यावत् पृथ्वी के सारे ही भगवानों के चरणों में तुम सुरक्षित हो जाओ? वे सब एक जुट हो कर तुम्हारे तारण को सदा तत्पर रहें, सावधान और नियुक्त रहें ! यही न?'
'हाँ भगवन्, हम तो जहाँ भी भगवान् हैं, उन सब के शरणागत हैं । हम वणिकों के वश का और क्या है ?'
श्री भगवान् चुप स्थिर मुस्कुरा आये। गहरे सन्नाटे में सर्वत्र एक सामूहिक मर्मर हास्य-ध्वनि व्याप गई।
श्रेष्ठियों को डर हुआ, कि कहीं अवसर न चूक जायें। कहीं श्रीभगवान् हाथ से न निकल जायें। सो उतावले हो कर तार-स्वर में दोनों एक साथ बोले :
'हम आप के शरणागत, आप की क्या सेवा कर सकते हैं, हे त्रिलोकीनाथ अर्हन्त ?' __श्री भगवान ने कोई उत्तर न दिया। तो श्रेष्ठी और भी अधिक उतावले हो कर बोले :
'श्री भगवान् हमारा दान स्वीकार कर, हमें कृतार्थ करें। हम जिनेश्वर अर्हन्त और उनके श्रमण संघ के लिये प्रासाद चुनवायें, आराम बनवायें, विहार बनवायें, चैत्य-उद्यान बनवायें। कूटागार, मठ, उपाश्रय बनवायें। ताकि भगवान् और उनका श्रमण-संघ वहाँ सुख से विहरें, और भवजनों को अपनी तरण-तारण जिनवाणी सुनायें।'
श्री भगवान् चुपचाप केवल नासाग्र दृष्टि से मुस्कराते रहे। वे चुप ही रहे, और दोनों श्रेष्ठी उच्च से उच्चतर स्वर में अपनी दान-घोषणा को विविध रूपों में दोहराते रहे। हठात् सुनाई पड़ा :
'तुम सुगत होओ श्रेष्ठिजनो! तुम्हारा कल्याण हो !' अनाथपिण्डक हर्षित आशान्वित हो कर बोला : 'तो देवाधिदेव त्रिलोकपति अर्हन्त ने हमारे दान को स्वीकार लिया ?"
'अनगार आगार नहीं स्वीकारते, आयुष्यमान्। दिगम्बर दीवारों में नहीं विचरते। निगण्ठ अर्हन्त प्रासादों और विहारों में नहीं विहरते। वे आवासित नहीं, निर्वासित विहरते हैं। वे पृथ्वी और आकाश के बीच मुक्त विहरते हैं। वे एक ही स्थान पर बार-बार नहीं लौटते। वे सर्वत्र, सर्व देश-काल में नित-नव्य और स्वतंत्र विचरते हैं। वे लौट कर वहीं-वहीं नहीं आते। असंख्य प्रदेश, पर्याय, परमाणु को पार करते हुए, आगे ही बढ़ते जाते हैं।'
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org